Saturday, 19 May 2018

बाज़ार

सबके भाव अलग हैं,सबके अलग खरीदार हैं
कोई बिक जाता है,कोई बिक ही नहीं पाता है
यह दुनिया नहीं एक बाज़ार है।

Friday, 18 May 2018

मौत

बेवक्त मौत ही लिखी है जिंदगी में
तो फिर ये जिंदगी मिली ही क्यों है।

दोस्त

जो लड़ रहे थे आपस में वो अब लड़ रहे हैं मुझसे
दुश्मनों को भी दोस्त बनाने में कामयाब रहा हूँ मैं।

मोहब्बत

लफ्जों से नहीं दिल से बयां करता हूँ
मैं सिर्फ मोहब्बत की बात करता हूँ।

ख़ामोशी

नफ़रत की फसलें अब ख़ूब लहलहाने लगी हैं धरती पर
और लोग ख़ामोश हैं मौत का बीज बोते हुए देखकर भी।

Thursday, 17 May 2018

शहर

शहर की हवाएँ भी कैद हैं खिड़कियों में
बचपन खेलने जाए भी तो कहाँ जाए।।

Wednesday, 16 May 2018

पत्थर

एक पत्थर छुपा है मेरे अंदर भी
तराश रहा हूँ जिसे वक्त दर वक्त।

Tuesday, 15 May 2018

चेहरा

उसका एक ही चेहरा लिए बाज़ार में घूम रहा हूँ कब से
और हज़ार चेहरों के साथ मौजूद है वह मेरे आसपास ही

सियासत

संवेदनाएं अब तो मर चुकी हैं लोगों की आंखों में भी
मरे हुए चेहरे में भी लोग सियासत की भूख देखते हैं।

Sunday, 13 May 2018

प्रश्न

एक मुकम्मल जवाब की तलाश में जिंदगी एक प्रश्न बनकर रह गई है |

Wednesday, 9 May 2018

दोस्ती

इतने नक़ाब पहन रखे हैं मेरे दुश्मन ने दोस्ती की
कि जान दे दूँगा किसी दिन उसकी इस अदा पर ही

Tuesday, 8 May 2018

ख़ामोशी

मेरी ख़ामोशी भी बहुत बोलती है लोगों की जुबान से
चुप रहकर ही उन्हें देता हूँ मैं माक़ूल जवाब अब भी।

Thursday, 3 May 2018

गटर


बच्चों की भूख की विवशता में 
वह गटर में घुसा
और बच्चों को अनाथ कर गया
उसका मरना देश के लिए
जायज सवाल न था
इसलिए भुला दिया गया
चुप ही रहीं सरकारें 
ऐसे अनेक चुभते सवालों पर 
आम सरोकारों पर|

बड़े-बड़े नारों, विज्ञापनों
गगनचुंबी इमारतों, सूचकांकों से
तय किया जाता रहा विकास का पैमाना
और गटर में खो गए 
कई वाजिब सवाल
भूख के, ग़रीबी के|

भूख की लड़ाई लड़ी जाने लगी है
इश्तिहारों में,नारों में, हड़तालों में  
अन्याय को अन्याय कहने वाली 
आवाजें दब गईं हैं कोलाहल में
लड़ने लगी हैं विचारधाराएँ
एक-दूसरे को मिटाने के लिए हीं    
धर्मों, दलों की आपसी लड़ाई में 
गटर में समा गई है नैतिकता|

गटर में खो गए हैं कई मूल्य भी  
गिद्ध बेख़ौफ़ नोंचने लगे हैं
मासूमों का शरीर भी
गिद्धों ने ओढ़ ली है धर्म की चादर
गिद्धों के कुकृत्य के भी
हमदर्द पैदा हो गए हैं
डर, आतंक से सहमे हुए
सड़ांध समय में
गटर में समा गई है  
मनुष्यता भी|