Tuesday 6 November 2018

रोशनी

खुद की रोशनी से ही रोशन रहे जीवन हरदम।
और खुद के ही राम बन अंधेरा दूर कर लें हम।

Sunday 28 October 2018

दुनिया

दुनिया इस कदर जिंदा है मुझमें
कि मर गया हूँ मैं अपने भीतर ही।

Tuesday 23 October 2018

चीख


झूठ को झूठ कहूँगा तो
झूठ के हांथों
नुमाइश की वस्तु बना दिया जाऊँगा  
लात-घूंसों, अपशब्दों से नवाजा जाऊँगा
सरेराह |

झूठ को झूठ कहूँगा तो
झूठ के हांथों हीं
मारा जाऊँगा
यक़ीनन एक दिन |

डर और आतंक से
सहमे हुए समय में  
चुप रहना
फिर भी मुमकिन नहीं
मेरे लिए |

अपनी आवाज का
गला घोंटने से कहीं बेहतर है
जुबान
खींच ली जाए मेरी
सच की बुनियाद पर ही
और मेरी चीख
गूंजती रहे
वहशीपन के अंत होने तक |

Saturday 13 October 2018

आत्महंता

दिल में एक आग थी
जो अन्याय के ख़िलाफ़
मशाल बन जगाती थी मुझे
रात-रात भर जागता था
दुनिया को बदलने के सपने के साथ।

अपनी फटेहाली में मैं पाता था
विचारों की अमीरी
अचंभित हो सुनता था
जल-जंगल-जमीन की
अन्यायपूर्ण कहानियां
सोचता था कि विकास के वहशीपन में
कहीं खत्म न हो जाए यह दुनिया
अपराध में आकंठ डूबे हाँथों से
कहीं बेमौत न मारी जाए मानवता
ग़रीब अनुत्तरित न रह जाएं
फिर अपने दुर्भाग्य की तरह।

विचारधाराओं की लड़ाई में
हारता हुआ देखता था ग़रीबी को तो
खौलता हुआ पाता था अपने लहू को
देखता रहता था ग़रीबी के नाम पर
मसीहा बने चेहरे को बिकते हुए
और एक नई सुबह की तलाश में
अंधेरे में दर-दर भटकता रहता था।

अब जबकि उस मुकाम पर हूँ मैं
कि मेरी ही मुट्ठी में बंद है उजाला
मैं ख़ामोशी से देखता हूँ अंधेरे को
अपनी चौखट पर दम तोड़ते हुए
सौदा करता हूँ सच का झूठ के हाँथों
और सच कहूँ तो अन्याय की बुनियाद पर ही
गढ़ रहा हूँ मैं अपने सपनों की इमारत
अतीत अब मेरे लिए उस सीढ़ी की तरह है
जो मंजिल पर पहुंचाकर निरर्थक हो गई है
अन्याय के ख़िलाफ़ आग उगलने वाली
मेरी आवाज़
अब जी-हुजूरी की ग़ुलाम हो गई है।

अपने तमाम उसूलों से समझौता कर
हासिल कर लिया है मैंने चमकता चेहरा
जबकि जानता हूँ मैं कि
आत्महंता हूँ मैं अपनी ही ज़मीर का।

Saturday 8 September 2018

मंजिल

न जाने कितने ही ख़्वाब अधूरे हैं मुझमें
और हर रोज एक नया ख़्वाब बुन लेता हूँ।
न जाने किस मंजिल की तलाश में हूँ मैं
कि मंजिल के लिए अपनों को छोड़ देता हूँ।

Friday 24 August 2018

एहसास

इतनी मोहब्बत दिखाई चाहने वालों ने मरने के बाद
कि एहसास हो गया होता तो वे कबके मर गए होते।

Thursday 23 August 2018

किताब

किताबों ने पढ़ाया प्रेम 
और हम नफ़रत सीख गए|

किताबों ने सिखाई संवेदनशीलता 
और हम कसाई बन गए|

अब दुनिया की भीड़ में 
खुद को खोकर खड़ा हूँ 
स्तब्ध |

सीखा हुआ खोने के लिए 
खोया हुआ पाने के लिए|
 
तिलांजलि देने के लिए 
उन अर्थों को 
जो प्रेम को नफरत 
और संवेदनशीलता को कसाई 
पढ़ना सिखा गए|

Tuesday 21 August 2018

बुजदिली

बेख़ौफ़ हाँथों द्वारा
नंगा कर देने से
स्त्री नहीं
सोच नंगी हो जाती है
समाज की।

वो व्यवस्था नंगी हो जाती है
जिसने शपथ ली है
सुशासन की।

वो मंशा
नंगी हो जाती है
जो फंसी हैं 
बेवजह के कुतर्कों में|

वो आंखें नंगी हो जाती है
जो स्वाद की तरह परोसती है
खबरों को।

वो मर्यादा नंगी हो जाती है
जिसके आवरण में
अनावृत हो गई है स्त्री।

वो स्त्री नंगी हो जाती है
जिसने आँख पर
पट्टी बाँध रखी है   
भरी अदालत में|

वो शिक्षा नंगी हो जाती है
जो सिखाती है
यत्र नार्येस्तु पूज्यन्ते
रमन्ते तत्र देवता|

वो नियत नंगी हो जाती है
जो हैवानियत से भरी है
इबादत के बाद भी|

हम सब नंगे हो जाते हैं
अपनी-अपनी बुजदिली में|

दूरी

मोहब्बत की बारिश में नफ़रत न धुल न जाए कहीं
इसलिए भी नज़दीक रहकर दूरी बना रखी है उसने।

Friday 17 August 2018

बग़ावत

वे भी आवाज उठाने लगे हैं 
जो उपजाते हैं अन्न 
जो भूखे सो जाने को विवश हैं 
जिनके आँगन में जलता है 
चाँद का दीया 
जिनके बच्चे दम तोड़ देते हैं 
झाड़-फूंक होते-होते।

जो डाकिया को ही समझते हैं
सबसे बड़ा बाबू 
जिन्होंने जीवन के सिवा 
पढ़ा ही नहीं है कोई पाठ
जो जानते ही नहीं हैं
भूख से इतर दुनिया
जो बस जानते हैं
पसीने से धरती सींचना 
उम्मीदों की फसल बोना
और दाने-दाने के लिए 
मोहताज हो जाना।

आवाज उठाने वाले
एक दिन भूख के ख़िलाफ़
बग़ावत कर देंगे
फांस देंगे शोषण की गर्दन
भूख की आग में 
राख हो जाएंगी तिजोरियां
एक-एक कर मारे जाएंगे
वे सभी जिन्होंने छीन रखा है
उनसे मनुष्य होने का हक
वे भी जिनकी आत्मा मर गई है
और वे भी जो रहनुमा हो गए हैं
हुकूमत के।

Tuesday 14 August 2018

जज़्बात

आजाद हो जाऊं काश मन की जंजीरों से
बहुत बांध रखा है कमबख्त जज्बातों ने।

फ़ितरत

मेरी किस्मत थी,तुम्हें याद न करता तो और क्या करता।
तुम्हारी फ़ितरत थी,तुमने सब याद रखा मुझे भुलाकर।।

Sunday 5 August 2018

नौकरी की तलाश

अपने घर-परिवार को
दो रोटी खिलाने के लिए
माता-पिता के छोटे से सपने को
साकार करने के लिए
आसपास के माहौल में
खुद की उम्मीद को
जिंदा रखने के लिए
वर्षों की तंगहाली
अपार कठिनाइयों के बावजूद
एक अदद नौकरी की
अनवरत तलाश जारी रहती है।

इस अधूरी तलाश में
अधूरा रह जाता है जीवन भी
बहन की शादी भी
माँ का इलाज भी
पिता की दवाई भी
बच्चों की फीस भी
पत्नी के सपने भी
बेरोजगारी के दंश में
बेचैन रहती है आत्मा भी।

नौकरी की तलाश में
शहर दर शहर भटकते हुए
काम चाहने वाले हाँथ
इस कदर बेबस हो जाते हैं कि
अपने गले में रस्सी फांस
पेट की भूख को शांत कर देते हैं
और दम तोड़ती प्रतिभाओं का
यह सरोकार भी
साजिश लगने लगता है
सरकारों को
बरसाई जाती हैं लाठियाँ
वाजिब हक मांगने पर।

नौकरी के इस व्यापार में
अपनी ज़मीर को
जिंदा रखते हुए
बेरोजगार
आज़ाद देश में
गुलामों की तरह दौड़ते रहते हैं
अंतहीन अंधी दौड़
एक अदद नौकरीे की तलाश में।

Wednesday 1 August 2018

एक अकेली स्त्री होना

एक अकेली स्त्री होना
हैवानियत भरी नजरों से
खुद को बचाने के लिए
अपनी अंतरात्मा को मार देना है
गूंगी आवाज में चीखना
और बाहर चुप हो जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
वीभत्स मानसिकता से
खुद को महफूज बनाए रखने का
ख्वाब बचाए रखना है
अपनी बेगुनाही के बाद भी
बेशर्म सवालों से
शर्मसार होते रहना है
दरिंदगी से गुजरने के बाद भी
दरिंदों के हमदर्द धृतराष्ट्रों से
न्याय की उम्मीद बचाए रखना है।

एक अकेली स्त्री होना
बेवजह की बंदिशों में बंध जाना है
मौत के मुँह में समा चुकी
मासूमियत को
बेबस आंखों से देखते रह जाना है
आसमान की ऊंचाई को छूने की चाहत लिए
बंद खिड़कियों में दम घुट जाना है|

एक अकेली स्त्री होना
समाज की नज़र में
नुमाइश की वस्तु बन जाना है
भद्दी गालियों, चुटकुलों में तब्दील हो
उपहास का पात्र बन जाना है
बेख़ौफ़ हाँथों के लिए
एक खिलौना बन जाना है
अधिकार,शोषण,अत्याचार के
बड़े-बड़े भाषणों के बाद
मनोरंजन का साधन बन जाना है।

एक अकेली स्त्री होना
अंतहीन समझौता हो जाना है
वक्त को कसकर मुट्ठी में दबाए हुए
जिंदगी के कठोर फैसले से गुजर जाना है।

एक अकेली स्त्री होना
अंततः सीता हो जाना है।

Monday 30 July 2018

मछलियाँ

मगरमच्छों के इतिहास में
मछलियों के दर्द की
कोई कहानी नहीं होती।

मगरमच्छों के लिए
मछलियाँ
सिर्फ स्वाद और भूख होती हैं।

मगरमच्छ जानते हैं
कि उनका वजूद नहीं है
मछलियों के बिना
फिर भी रहम नहीं करते।

मगरमच्छ
मछलियों की जान से
खेलते हैं बेपरवाह।

मगरमच्छ अपने शोर से
दबा देते हैं
छटपटाती मछलियों की
चीख।

मछलियाँ
जिस दिन मगरमच्छ का
शिकार होने से बचना सीख लेंगी
मिलकर लड़ना सीख लेंगी
उस दिन मछलियों के इतिहास में
मगरमच्छ दुम हिलाते नज़र आएंगे।

माँ

माँ की आंखों से जो देखी दुनिया मैंने
अपनी आंखों में भी मैंने खुदा देखा।

Wednesday 25 July 2018

आंखें

आँखें जब देखती हैं
भूख
तब चुप रहती हैं|

आँखें जब देखती हैं
बेबसी
तब लाचार बन जाती हैं|

आँखें जब देखती हैं
अन्याय
तब सब सह जाती हैं|

आँखें जब देखती हैं
दर्द
तब कठोर हो जाती हैं|

आँखें
दुनिया हो गई हैं
खोखली
संवेदनहीन
स्मृतिहीन |

आँखों के सपने
बूढ़े हो गए हैं
इस इंतजार में कि
घोर कालिमा से
घिरी रात का
उजास कहीं हो|

Tuesday 24 July 2018

फैसला

जिंदगी का फैसला भला क्या कर पाएंगी अदालतें
जीते जी ही मर जाएंगे वे दोनों एक-दूसरे के बिना।

जिंदा

बिछड़ने के बाद भी वो इस कदर जिंदा है दिल में
कि अक्सर लहू बनकर टपक पड़ता है आंखों से।

Monday 2 July 2018

अंधी दुनिया


इस अंधी दुनिया में
आँख होने का
सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि
आप अंधे ठहरा दिए जाएंगे
लड़ेंगे हक की लड़ाई तो
गुनाहगार बना दिए जाएंगे
इंकार कर देंगे वहशीपन को तो
बीच चौराहे नंगे कर दिए जाएंगे
बनेंगे नहीं भीड़ का हिस्सा तो 
भीड़ के भेंट चढ़ा दिए जाएंगे|

इस अंधी दुनिया में
धृतराष्ट्र बन जाएंगे आप तो
सत्ता के योग्य पाए जाएंगे
कूट-कूट कर भरी हो हैवानियत तो
संत बना दिए जाएंगे
करेंगे नफ़रत से प्रेम तो
पैगम्बर बना दिए जाएंगे|

इस अंधी दुनिया में
बेचेंगे नहीं आप अपनी आत्मा तो
जिंदा लाश बना दिए जाएंगे|

Thursday 28 June 2018

ख्वाब

एक ख़ूबसूरत सी शाम हो और तुम हो
काश जिंदगी में यह ख्वाब मुमकिन हो।

एक आग

मोमबत्तियां
अंधेरों के साथ हो गई हैं
मोमबत्तियों ने तय कर लिया है
जलने की बजाय बुझ जाना।

मोमबत्तियों ने
घुप्प अंधेरों के दंभ में
उजाले को गुनाहगार
ठहरा दिया है
मोमबत्तियों ने गढ़ ली हैं
अन्याय की अनगिन कहानियां।

गुमराह हवाएँ
मोमबत्तियों की शह पर
जलाने लगी हैं बस्तियां।

सुबह के उजाले में
अंधेरे बेनक़ाब हो गए हैं
मोमबत्तियां
ढूंढ़ रही हैं
अपना प्रकाश
और एक आग
जो उन्हें रोशन कर सके।

बेपर्दा

रिश्तों को रफ़्फ़ु करते-करते खुद ही तार-तार हो गया हूँ मैं
और रिश्ते हैं कि बात-बात पर बेपर्दा होने को तैयार बैठे हैं।

Wednesday 27 June 2018

जहर

बहुत मीठा बोलता है वह सबसे
यकीनन जहर बहुत पीता होगा।

Tuesday 26 June 2018

पत्थर

न जाने कितने रास्ते बदले हमने खुद को ही बदलने के लिए
एक धड़कता दिल लेकर चले थे लौटे तो वो भी पत्थर हो गए।

घरौंदा

चलो जज्बातों का एक घरौंदा फिर से बनाएं
सुना है दिल तोड़कर बहुत खुश होता है वो।

Wednesday 20 June 2018

फैसले

जिंदगी के फैसले भी अदालती हो गए हैं
पड़े रहते हैं वर्षों सही वक्त की तलाश में।

Monday 18 June 2018

काबिलियत

दुश्मन भी तसदीक करते हैं मेरी इस काबिलियत की
कि जुल्म के हद से गुजर गया हूँ पर बिका नहीं हूँ मैं।

Saturday 16 June 2018

पिता के सपने


पिता की छाँव में
बेफ़िक्र जिंदगी बिताते हुए
सोचा कहाँ था कि
सिर पर साया न हो तो
असमय पतझड़ में
झुलस जाते हैं ख़्वाब
मुरझा जाते हैं रिश्तों के पेड़
ठूंठ बन जाता है भरा-पूरा परिवार
जड़े टूट जाती हैं हौसलों की
खुशियाँ सन्नाटों से भर जाती हैं
मोहताज़ हो जाती है जिंदगी
आज़ाद होकर भी।

जिंदगी की चिलचिलाती धूप में
अब तन्हा ही तप रहा हूँ मैं
वक्त के बादलों ने जीवन के 
उजालों को अँधेरे से भर दिया है
नन्हें पौधों को जिलाने की जद्दोजहद में
वक्त दर वक्त टूटता जा रहा हूँ मैं
अपनी जड़ों को थामने की पुरजोर कोशिश में
अपनी ज़मीन से ही उखड़ता जा रहा हूँ मैं। 

आगाह करता रहता हूँ मैं
नन्हें पौधों को
ग़ुमराह हवाओं से
अपनी जमीन से उखड़कर  
गमले में बस जाने की चाहत से
कुल्हाड़ी से दोस्ती निभाने की जिद से
यह जानते हुए भी कि आज़ाद ख़्याली में
अक्सर अनसुने रह जाते हैं पिता|

पिता के अधूरे सपने के साथ 
अपने घर-आंगन में
नीम के पेड़ की तरह
रह गया हूँ मैं निपट अकेला
घर की जरूरतों ने
बेघर कर दिया है मेरे अपनों को हीं
कुछ पौधे आसमान की ऊंचाई की जगह 
जमीन पर फैलने की चाहत में 
बोनसाई बनकर रह गए हैं
कुछ पौधों ने इंकार कर दिया है
धूप में रहने से और
खुद छाया बनकर रह गए हैं
कुछेक पौधे अपनी अंतरात्मा को बेचकर
वस्तुओं में तब्दील हो गए हैं 
कुछ हतोत्साहित हो गए हैं
साथी पौधों को बढ़ता देखकर।

अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में 
पिता की नसीहतों को 
दुहराता रहता हूँ मंत्र की तरह 
इस आस में कि
दमघोंटू वातावरण में
दम घुटने से पहले
अपनी जमीन पर लौट आएंगे पौधे 
और बंजर होते जीवन में
बारिश की बौछार की तरह  
बो पाऊंगा मैं पिता के सपने |


Tuesday 12 June 2018

दर्द

दिल के दर्दों का अपना कोई ठिकाना नहीं होता
ताउम्र पड़े रह जाते हैं दिल में ही नासूर बनकर।

Thursday 7 June 2018

खुदगर्ज

किसी को इतना भी मत चाहो कि नज़र से गिर जाओ
लोग खुदगर्ज होते हैं बेवजह मोहब्बत भी नहीं करते।

Wednesday 6 June 2018

फर्क

फर्क पड़ता है
किसी के फर्क
न पड़ने से भी।

Tuesday 5 June 2018

यादें

तुम्हारी यादें चाँद की तरह रहती हैं जेहन में
रोशन होता हूँ जिंदगी के अंधेरों में तुमसे हीं।

Sunday 3 June 2018

अदा

धोखा हो भी तो क्या है
वो भी तो एक अदा है।

Saturday 2 June 2018

सितम

एक तेरा साथ निभाने की जिद में
मैंने हरेक सितम से दोस्ती कर ली|

Friday 1 June 2018

जुबां

उसकी जुबां बोलूँ या अपने दिल ही के जज़्बात कहूँ
जीवन के इस दरिया में इस पार रहूँ या उस पार रहूँ|

इज्जत

इज्जत करते-करते उनकी हरेक बात का 
बेइज्जत हो गए हम अपनी ही निगाहों में|

Saturday 19 May 2018

बाज़ार

सबके भाव अलग हैं,सबके अलग खरीदार हैं
कोई बिक जाता है,कोई बिक ही नहीं पाता है
यह दुनिया नहीं एक बाज़ार है।

Friday 18 May 2018

मौत

बेवक्त मौत ही लिखी है जिंदगी में
तो फिर ये जिंदगी मिली ही क्यों है।

दोस्त

जो लड़ रहे थे आपस में वो अब लड़ रहे हैं मुझसे
दुश्मनों को भी दोस्त बनाने में कामयाब रहा हूँ मैं।

मोहब्बत

लफ्जों से नहीं दिल से बयां करता हूँ
मैं सिर्फ मोहब्बत की बात करता हूँ।

ख़ामोशी

नफ़रत की फसलें अब ख़ूब लहलहाने लगी हैं धरती पर
और लोग ख़ामोश हैं मौत का बीज बोते हुए देखकर भी।

Thursday 17 May 2018

शहर

शहर की हवाएँ भी कैद हैं खिड़कियों में
बचपन खेलने जाए भी तो कहाँ जाए।।

Wednesday 16 May 2018

पत्थर

एक पत्थर छुपा है मेरे अंदर भी
तराश रहा हूँ जिसे वक्त दर वक्त।

Tuesday 15 May 2018

चेहरा

उसका एक ही चेहरा लिए बाज़ार में घूम रहा हूँ कब से
और हज़ार चेहरों के साथ मौजूद है वह मेरे आसपास ही

सियासत

संवेदनाएं अब तो मर चुकी हैं लोगों की आंखों में भी
मरे हुए चेहरे में भी लोग सियासत की भूख देखते हैं।

Sunday 13 May 2018

प्रश्न

एक मुकम्मल जवाब की तलाश में जिंदगी एक प्रश्न बनकर रह गई है |

Wednesday 9 May 2018

दोस्ती

इतने नक़ाब पहन रखे हैं मेरे दुश्मन ने दोस्ती की
कि जान दे दूँगा किसी दिन उसकी इस अदा पर ही

Tuesday 8 May 2018

ख़ामोशी

मेरी ख़ामोशी भी बहुत बोलती है लोगों की जुबान से
चुप रहकर ही उन्हें देता हूँ मैं माक़ूल जवाब अब भी।

Thursday 3 May 2018

गटर


बच्चों की भूख की विवशता में 
वह गटर में घुसा
और बच्चों को अनाथ कर गया
उसका मरना देश के लिए
जायज सवाल न था
इसलिए भुला दिया गया
चुप ही रहीं सरकारें 
ऐसे अनेक चुभते सवालों पर 
आम सरोकारों पर|

बड़े-बड़े नारों, विज्ञापनों
गगनचुंबी इमारतों, सूचकांकों से
तय किया जाता रहा विकास का पैमाना
और गटर में खो गए 
कई वाजिब सवाल
भूख के, ग़रीबी के|

भूख की लड़ाई लड़ी जाने लगी है
इश्तिहारों में,नारों में, हड़तालों में  
अन्याय को अन्याय कहने वाली 
आवाजें दब गईं हैं कोलाहल में
लड़ने लगी हैं विचारधाराएँ
एक-दूसरे को मिटाने के लिए हीं    
धर्मों, दलों की आपसी लड़ाई में 
गटर में समा गई है नैतिकता|

गटर में खो गए हैं कई मूल्य भी  
गिद्ध बेख़ौफ़ नोंचने लगे हैं
मासूमों का शरीर भी
गिद्धों ने ओढ़ ली है धर्म की चादर
गिद्धों के कुकृत्य के भी
हमदर्द पैदा हो गए हैं
डर, आतंक से सहमे हुए
सड़ांध समय में
गटर में समा गई है  
मनुष्यता भी|

Thursday 26 April 2018

शहर


आँखों में दफ़न होते
ख्वाहिशों के साथ
निकलता हूँ हर दिन
चश्मा पोंछ देखता हूँ
शहर के धुंधलापन को
शहर के कतारों में उम्मीदों को खोकर
थके पाँव लौट आता हूँ |

गाँव लौटने के वादे के साथ कभी 
थामा था मैंने इस शहर का दामन
इस शहर ने छीन लिया है मेरा वक्त भी   
इंतजार करते माँ-पिता के साथ ही
खो दिया है मैंने अपना गाँव-घर भी |

शहर की इस बंद गली में 
हवाएं मेरे कमरे की खिड़कियाँ नहीं खोलतीं
बंद दरवाजों ने कभी
दूसरों के लिए खुलने की ज़हमत ही नहीं की 
चाय की प्यालियों ने कभी
आपस में बात ही नहीं की
हँसी-ठहाकों का कभी 
मेरे इन बंद दीवारों से वास्ता ही नहीं पड़ा |

इस शहर ने मेरी सोचने-समझने की 
भाषा में भी कर दिया है फर्क
खुद से भी कभी मुक़म्मल बात नहीं की है मैंने
थोड़ी सी दूरी बना कर रखी है मैंने खुद से भी
खुद को ही जिंदा रखने के लिए|  

एक दिन ऐसा होगा कि 
मेरे कमरे के बंद दरवाजे तोड़ दिए जाएंगे 
शोर मचाने लगेंगी खिड़कियाँ 
चुप गली बोलने लगेगी
फिर भी मैं उठूंगा नहीं
उठाएंगे मुझे कुछ अनमने कंधे 
जल उठेंगी मेरी ख़्वाहिशें चिता पर
पर आग की लपटों के साथ मैं उठूंगा जरुर
राख,हवा,पानी बनकर ही सही  
किसी न किसी रूप में
अपने गांव-घर तक पहुँचूँगा जरुर।