शब्द खो चुके हैं अपना अर्थ
या कि अर्थहीन हो गई हैं
संवेदनाएं
दर्द भरे स्वर खो चुके हैं अपना कंठ
या कि दफ्न कर दिया गया है ईमान
को
अतिशय शोर से थरथराने लगी है धरती
या कि भय ने प्रेम को विषाक्त कर
दिया है
जंग जीतने की हताशा फैली है हर
कहीं
या कि विवश हो गई है मनुष्यता?
विकास के अध नंगेपन में खोई है
दुनिया
या कि सिसक रही है सभ्यता
नफ़रत से धधकती धरती में बची है
सिर्फ अंतहीन प्यास
पत्थर हो जाने की
अमिट हो जाने की|