Saturday 8 September 2018

मंजिल

न जाने कितने ही ख़्वाब अधूरे हैं मुझमें
और हर रोज एक नया ख़्वाब बुन लेता हूँ।
न जाने किस मंजिल की तलाश में हूँ मैं
कि मंजिल के लिए अपनों को छोड़ देता हूँ।