पिता की छाँव में
बेफ़िक्र जिंदगी बिताते हुए
सोचा कहाँ था कि
सिर पर साया न हो तो
असमय पतझड़ में
झुलस जाते हैं ख़्वाब
मुरझा जाते हैं रिश्तों के पेड़
ठूंठ बन जाता है भरा-पूरा परिवार
जड़े टूट जाती हैं हौसलों की
खुशियाँ सन्नाटों से भर जाती हैं
मोहताज़ हो जाती है जिंदगी
आज़ाद होकर भी।
जिंदगी की चिलचिलाती धूप में
अब तन्हा ही तप रहा हूँ मैं
वक्त के बादलों ने जीवन के
उजालों को अँधेरे से भर दिया है
नन्हें पौधों को जिलाने की जद्दोजहद
में
वक्त दर वक्त टूटता जा रहा हूँ मैं
अपनी जड़ों को थामने की पुरजोर कोशिश
में
अपनी ज़मीन से ही उखड़ता जा रहा हूँ
मैं।
आगाह करता रहता हूँ मैं
नन्हें पौधों को
ग़ुमराह हवाओं से
अपनी जमीन से उखड़कर
गमले में बस जाने की चाहत से
कुल्हाड़ी से दोस्ती निभाने की जिद से
यह जानते हुए भी कि आज़ाद ख़्याली में
अक्सर अनसुने रह जाते हैं पिता|
पिता के अधूरे सपने के साथ
अपने घर-आंगन में
नीम के पेड़ की तरह
रह गया हूँ मैं निपट अकेला
घर की जरूरतों ने
बेघर कर दिया है मेरे अपनों को हीं
कुछ पौधे आसमान की ऊंचाई की जगह
जमीन पर फैलने की चाहत में
बोनसाई बनकर रह गए हैं
कुछ पौधों ने इंकार कर दिया है
धूप में रहने से और
खुद छाया बनकर रह गए हैं
कुछेक पौधे अपनी अंतरात्मा को बेचकर
वस्तुओं में तब्दील हो गए हैं
कुछ हतोत्साहित हो गए हैं
साथी पौधों को बढ़ता देखकर।
अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में
पिता की नसीहतों को
दुहराता रहता हूँ मंत्र की तरह
इस आस में कि
दमघोंटू वातावरण में
दम घुटने से पहले
अपनी जमीन पर लौट आएंगे पौधे
और बंजर होते जीवन में
बारिश की बौछार की तरह
बो पाऊंगा मैं पिता के सपने |