जब तुम लिख रहे थे कविता
आत्म हत्या कर रहे थे
किसान
बलात्कार हो रहे थे
बहू-बेटियों के
कत्लेआम हो रहे थे धर्म के
नाम पर
पर तुम्हारी कविताओं में
नहीं था कोई दर्द|
तुम्हारी कविताएँ ढूंढ रही
थीं सत्ता के गलियारे
पा रहे थे तुम ढेरों
सम्मान
तुम्हारी कविताएँ
सत्ता तंत्र की आकांक्षाएं
हो गई थीं
जिसे न चाहते हुए भी तुम
लिख रहे थे
अपनी ही आत्मा के विरुद्ध
जी रहे थे
ताकि तुम पा सको वह सब
जो आज तक अभाव था |
बिकी हुई लेखनी से गा रहे
थे तुम
बिके हुए गीत
अर्थहीन हो गए थे तुम
और तुम्हारी कविताएँ
सार्थक होने की संभावना के
साथ
निरर्थक हो गई थीं|
और एक दिन बदलते वक्त के
साथ
बड़ी बेआबरू होकर फेंक दिए
गए थे तुम
जहाँ से चलना शुरू किया था
तुमने
वहीँ कहीं धकेल दिए गए थे
तुम|
तुमने जो लिखना चाहा
तुम लिख ही नहीं सके
सत्ता की धार में बह गईं
तुम्हारी अर्थहीन कविताएँ
मुर्दे की तरह
सागर होने की संभावना लिए
सिमट गए थे तुम
सड़े हुए पानी की तरह
एक पोखर में|