Thursday 31 July 2014

जब तुम लिख रहे थे कविता

जब तुम लिख रहे थे कविता
आत्म हत्या कर रहे थे किसान
बलात्कार हो रहे थे बहू-बेटियों के
कत्लेआम हो रहे थे धर्म के नाम पर
पर तुम्हारी कविताओं में नहीं था कोई दर्द|

तुम्हारी कविताएँ ढूंढ रही थीं सत्ता के गलियारे
पा रहे थे तुम ढेरों सम्मान
तुम्हारी कविताएँ
सत्ता तंत्र की आकांक्षाएं हो गई थीं
जिसे न चाहते हुए भी तुम लिख रहे थे
अपनी ही आत्मा के विरुद्ध जी रहे थे
ताकि तुम पा सको वह सब
जो आज तक अभाव था |

बिकी हुई लेखनी से गा रहे थे तुम
बिके हुए गीत
अर्थहीन हो गए थे तुम
और तुम्हारी कविताएँ
सार्थक होने की संभावना के साथ
निरर्थक हो गई थीं|

और एक दिन बदलते वक्त के साथ
बड़ी बेआबरू होकर फेंक दिए गए थे तुम
जहाँ से चलना शुरू किया था तुमने
वहीँ कहीं धकेल दिए गए थे तुम|

तुमने जो लिखना चाहा
तुम लिख ही नहीं सके
सत्ता की धार में बह गईं  
तुम्हारी अर्थहीन कविताएँ
मुर्दे की तरह
सागर होने की संभावना लिए
सिमट गए थे तुम
सड़े हुए पानी की तरह

एक पोखर में|

Wednesday 30 July 2014

वक्त के आईने में

वक्त के आईने में लिखता हूँ दिल के जज्बात
और आँधियों से महफूज रखता हूँ खुद को| 

Tuesday 29 July 2014

कुछ ऐसा हो

कुछ ऐसा हो जिंदगी में कि भूल ही जाऊं तुम्हें
या फिर कुछ ऐसा हो कि तुम जिंदगी बन जाओ|

उपहार

सबसे बड़ा उपहार ये होता कि कोई गुजरा हुआ वक्त लौटा देता
जिन नादानियों में गुजरी है जिंदगी कोई उन्हें सुलझा देता|

अपनी ही किस्मत का भरोसा

अपनी ही किस्मत का भरोसा लेकर चला हूँ मैं
वरना खास को भी खाक  होते देखा है मैंने|

प्यार

जब तक जिंदगी में प्यार है
हर चुनौती सहर्ष स्वीकार है|

Thursday 24 July 2014

रुसवाई

वक्त मौसम की तरह है बदल जाता है
मैंने तो खुद से कभी रुसवाई नहीं की है

कातिल निगाह

ढूंढता रहा कातिल को अपनी निगाह में
अब ढूंढता हूँ कातिल निगाह से खुद को|

Wednesday 23 July 2014

मेरी हिंदी माँ

तुमने ही तो कहा था
एक दिन
अतिथि आओ हमारे द्वार |

तब तुम कहाँ जानती थी?
कि तुम बुला रही हो
तुम्हें ही मिटा देने वाली
तुम्हें ही तोड़ देने वाली
ताकत को
जो धीरे-धीरे
आँगन में खेलने लगी थी तुम्हारे|

तभी पहचान गईं थीं
कुछ कुशल आँखें
कि हटाना ही होगा
तुम्हारे आँगन में छुपे तूफान को
परंतु, तुम्हारे बेटों को भा गई थी
विदेशी बहू|

और एक दिन
घर से निकाल दी गई थी
तुम चौराहे पर
जहाँ आंदोलन बन गई थी तुम|

तुम्हारे साथ खड़े थे
गाँधी जी
देश की भावनाओं के साथ|

अब गाँधी जी नहीं
उनकी सोच नहीं
उनके सपने नहीं
तो मारे-मारे फिरती हो तुम
गली-चौक-चौराहे पर|

कुछ सनकी बेटे हैं तुम्हारे
जो पूजते हैं तुम्हें
पर अपनाते नहीं|

छोड़ आए हैं वे
तुम्हें राजपथ पर
जहाँ सेंकीं जाती हैं
तुम्हारे नाम पर
राजनीति की रोटियां|

तुम हमारी माँ हो
यह मानता है देश
पर जीता है वह
विदेशी बहू के साथ
शौक से|

तुम पगली हो
इस देश के लिए
या पागल है यह देश
नहीं जानता |

सोचता हूँ
फिर गाँधी जी आएंगे
तुम्हें पहचान दिलाने के लिए
तुम्हें घर लौटाने के लिए
फिर गाँधी जी आएंगे
मेरी हिंदी माँ |  




मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार
ताकि मैं मैं रह सकूँ
और तुम तुम|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार
ताकि जिंदगी के जिस भी
रास्ते पर बढ़ें कदम
तुम धरती की तरह रहो
और मैं आसमान की तरह
जुदा रहकर भी
साथ रह सकूँ|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार
ताकि हमारी भावनाएं
जिंदगी के दो किनारों को छूती भी रहें
और समय की धारा में बहती भी रहें
अपनी पूर्ण पवित्रता के साथ|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार
ताकि कहे- अनकहे को
अपने दिल में दे सकूँ आवाज
और तुम मेरी रगों में
बहती ही रहो सदानीरा बनकर|

मैं छुपाता हूँ अपने भीतर प्यार
ताकि घनघोर अँधेरे को
तुम्हारे चौखट का सूरज बना सकूँ
और आलोकित रहो

तुम सदा यूँ हीं|

जिंदगी

किसे देखूं,किसे परखूँ,किसे जांनू
जो जिंदगी ने दी है वो कम तो नहीं|

जख्मी पांव

बरसता रहे आसमां,या धधकती रहे धरती
मेरे जख्मी पांव ने अपना रास्ता नहीं छोड़ा|

Monday 21 July 2014

बलात्कार

बलात्कार व्यक्ति नहीं करता 
बलात्कार करता है समाज 
यह दिखाने के लिए 
कि पीड़ित दोयम दर्जे की प्राणी है 
उसका अधिकार घर की दहलीज नहीं लाँघ सकता 
महफूज नहीं रह सकती वह कहीं भी 

और तमाशाबीन लोकतंत्र 
सहानुभूति देता है उसे
समझाता है कायदे-कानून
कलपती है आत्मा
धिकारता है मन
दिखती है मौत

और बेलाग घूमते हैं शिकारी
एक अदद शरीर की तलाश में
महफूज होकर निडर
हँसते हुए हम पर
हमारी कायरता पर |

Tuesday 15 July 2014

हिंदी हैं हम

हिंदी में ही गीत गाता है किसान
जब लहलहाती है
फसल |

हिंदी में ही दुलारती है माँ
जब रूठ जाती है लाडली |

हिंदी में गाए जाते हैं क्रांति के गीत
जब संवेदनहीन हो जाती है व्यवस्था|

हिंदी में ही लिखे जाते हैं खत
जब पगडंडियां भूल जाती हैं घर का रास्ता
  
हिंदी ही समझता है विदेश  
जब बोलते हैं गाँधी|

हिंदी में ही है वह ताकत
जब पूरा देश खड़ा होता है एक साथ |

हिंदी से ही हैं हम
हिंदी हैं हम

हिंदी हैं हम | 

राम

राम
छोड़ देते हैं
महल,सुख,वैभव
सब कुछ 
पाने के लिए
स्वयं को
अनेक रूपों में|

निकल पड़ते हैं
अनजान पथ पर
यह जानते हुए कि
पग-पग पर चुभेंगे 
कांटे
वे आह तक नहीं करते
और दर्द से मर जाते हैं पिता
राज वैभव के साथ |

रावण को मारकर
राम पा लेते हैं
अपना विराट स्वरुप
और लौटकर अयोध्या में
राम खो देते हैं
स्वयं को|

रावण 
अब भी हँसता है
जब –जब पराजित होते हैं
राम
जीत कर भी
सब कुछ हार जाते हैं
अपनों के द्वारा|

आज भी व्याकुल होती हैं
सीता
जब निकाल दी जाती है
स्त्री
घर से मर्यादा के नाम पर|

आज भी बिछड़ते हैं
उर्मिला- लक्ष्मण
अपने ही
घर के टूटने के सवालों पर |

वक्त पूछता है
हमसे,आपसे
क्यों अब भी
पराजित होते हैं राम 
क्यों आज भी
निकाल दी जाती है सीता
क्यों अब भी
बिछड़ जाते हैं उर्मिला- लक्ष्मण
हमें बनाते-बनाते

क्या बता सकते हैं आप? 

खुशियाँ

खुशियाँ ढूँढ रही हैं
तुम्हें
हर उस रास्ते पर
जहाँ से गुजरना है
तुम्हें
एक न एक दिन |

खुशियाँ
वहां भी थीं
जहाँ छोड़
आए हो तुम अपना
बचपन
कागज की नाव
भाई के पतंग
बहन के खिलौने |

खुशियाँ
दिल के किसी कोने में
अब भी पड़ी हैं
इंतजार में खड़ी हैं
कि तुम उन्हें
बुलाओ
और वो दौड़ी चली आए
नन्ही बेटी की तरह|

क्या तुम खुशियों को बुला सकोगे
अपना सकोगे
छोटी –छोटी बातों में
मुस्करा सकोगे?

हँस सकोगे
हर एक जख्म पर भी
उदासी को हँस के गले लगा सकोगे ?

क्या तुम दीप बुझने से पहले
उजाला ला सकोगे
पल-पल गुनगुना सकोगे ?

खुशियाँ पाने के लिए
खुशियाँ बाँट सकोगे
बतलाओ न

कब खुशियों को घर ला सकोगे|

मूल्य

मेरे लिए
जिंदगी का
मूल्य क्या है?

क्या जिंदगी
स्वास्थ्य
शिक्षा
संबंध
आत्मिक बोध
के बगैर जी जा सकती है ?

नहीं न
फिर
मूल्य सिर्फ धन का ही क्यों?

समय का मूल्य कितना जानता हूँ मैं
या विचार का मूल्य क्या है ?

क्या मैं जानता हूँ शब्दों की कीमत?
क्या मैं आत्मा की गहराई से काम करता हूँ?
कर्म पर कितना विश्वास है मुझे ?
क्या मैं जीता हूँ स्वयं के लिए?

क्या मैं दोहराता हूँ ?
एक ही गलती बार-बार |

क्या मैं सचमुच
करता हूँ स्वयं से प्यार
नि:स्वार्थ ?

नहीं न
फिर
मूल्य तो मूल्यहीन ही है मेरे लिए

जीवन के लिए|

कर्जदार

जिस-जिस का
कर्जदार था
सबने ले ली
अपने-अपने हिस्से की धूप|

जिन्हें
उतारना था मेरा कर्ज
सब के सब
डूब गए अँधेरे में |

और मैं
चाँद बनकर
भी ठिठक गया हूँ

एक दीपक में |

अपना चेहरा

मुझे
जब-जब दिखता है
अपना चेहरा|

उस पर
लिखे होते हैं
शब्द |

उसे
अर्थ देता हूँ
मैं
जाने-अनजाने
स्वयं को |




बदलना स्वयं का

बदलता रहा खुद को
रिश्तों को खातिर
निभाता रहा संबंध
दिल पर पत्थर रखकर

मिटाता रहा जीवन 

रास्ता बनकर रह गया मेरा जीवन

जीवन में हमेशा वही किया
जैसा दूसरों ने चाहा |

जीवन में हमेशा
दूसरों के कहने पर ही चलता रहा|

यह जानकार भी कि 
छला जा रहा हूँ मैं
चुप रहा|

यह सोचकर कि
शायद बदल जाए सोच
अक्सर साथ निभाने के लिए
देता रहा अपनी कुर्बानियां
और अक्सर
औरों के लिए
रास्ता बनकर रह गया मेरा जीवन |


माँ

जब
राह चलते-चलते
थक जाता हूँ|

जब
साथ छोड़
निकल जाते हैं
सभी संगी-साथी|

जब
रह जाता हूँ
भीड़ में अकेला |

जब
टूट जाती है
सब आस
तब तुम बहुत याद आती हो
माँ |

कभी सोचा कहाँ था
एक दिन
ऐसा होगा
जब सब कुछ होगा
मेरे पास
और
तुम नहीं होगी
माँ|

वो बचपन
तुम्हारी
थपकी से
गहरी नींद
में खो जाने का सुख |

वो तुम्हारे कौर से
खाने का स्वाद
तुम्हारे
आँचल की छाँव
अब कहाँ |

न वह नींद
न वह स्वाद
न वह छाँव
तुम बिन
मैं कुछ भी तो नहीं
माँ|

तुमने चाहा
कि कभी भूखा न रहूँ मैं |

तुमने चाहा
कि मुस्कुराता रहूँ मैं |

तुमने चाहा
कि सारी खुशियाँ सिमट जाए
मेरे दामन में |

तुमने चाहा
कि मुझ पर रहे
देवी-देवताओं का आशीर्वाद|

तुम भूखी रही
मेरे सपनों के लिए |

तुम जीती रही
मेरी खुशियों के लिए|

तुम्हारे सब सपने
सच हुए
माँ|

पर तुम बिन
मेरे जीवन में
सब कुछ अधूरा है
माँ|

सब जगह अँधेरा है
माँ|
सब जगह अँधेरा है

माँ|