Friday 29 December 2017

मैं प्रेम करता हूँ

मैं प्रेम करता हूँ
अपनी अंतहीन उदासियों से 
अपनी घुप्प चुप्पियों से 
अपने हर उस ख़ामोश लम्हे से 
जिसमें मैं खुद को भूल गया हूँ
सिर्फ तुम्हें याद रखने के लिए ।

मैं प्रेम करता हूँ
प्रेम की परिभाषा से परे
तुम्हारे समयातीत एहसास को
अक्सर बेख़बर हो पढ़ता हूँ 
तुम्हारी उदास मुस्कुराहटों को 
हथेलियों पर थामे हुए तुम्हारे 
आँसुओं में देखता हूँ भावों का समंदर
और डूब जाता हूँ अपने अंदर ही।

मैं प्रेम करता हूँ
अपने उन भावों को व्यक्त करने के लिए
जो तुम्हें कभी अर्पित ही नहीं हो पाए
अव्यक्त भावों की गठरी लिए
भटकता ही रहता हूँ शब्दों के लिए
और निःशब्द हो जाता हूँ तुम्हारे सामने।

मैं प्रेम करता हूँ
यह जानते हुए भी कि 
जिंदगी की जिम्मेदारियों के बीच
अक्सर बेबस हो जाता है प्रेम
तुम्हारी ख़ामोश नज़रों में रहकर भी
अजनबी बने रहने के लिए 
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।

मैं प्रेम करता हूँ
दुनिया की तमाम कोशिशों के बाद भी
दिल से मिटा नहीं पाने वाली 
प्रेम की उस ताकत को बचाए रखने के लिए
जिसकी वजह से 
वक्त के घनघोर अंधेरे में भी
पत्थर दिल होने से बच पाया हूँ मैं।

मैं प्रेम करता हूँ
अपने अटूट विश्वास को बचाए रखने के लिए
ताकि प्रेम के पतझड़ में भी
बचा रहे प्रेम
संबंधों की मरुभूमि में भी
पनपता रहे प्रेम
प्रेम का पनपना ही
दुनिया का संवेदनशील हो जाना है
तुम्हारी ही तरह।

मैं प्रेम करता हूँ
प्रेम के सम्मान को 
प्रेम के अपने प्रतिदान को
प्रेम की निजता को
अपनी अपूर्णता के साथ भी
तुम्हारी पूर्णता के लिए।

मैं प्रेम करता हूँ
प्रेम की आत्मशक्ति से
प्रेम को प्रतिष्ठित करने के लिए
प्रेम को प्रेम की तरह समझने के लिए
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
प्रेम का इजहार किए बिना ही
आजीवन प्रेम का वरदान पाने के लिए
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ
प्रेम की पूर्ण अनुभूति के साथ
अपने निश्चल प्रेम को 
अपने अंतरतम में प्रणाम करता हूँ
मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।

Wednesday 27 December 2017

ख़ुदा

जिसे कह सकूँ मैं अपना वो ख़ुदा भी नहीं है
काफ़िरों ने खुदा को भी हथियार बना डाला।

Tuesday 19 December 2017

वफ़ा

अक्सर अधूरा ही रखता हूँ मैं खुद से किया वादा भी।
तुम्हारी ही तरह अब मैं खुद से भी वफ़ा नहीं करता।

Saturday 2 December 2017

बोझिल पंख

पिंजरे के पक्षी
पिंजरे की सलाखों से
आकाश की असीम संभावनाओं को
कभी देख ही नहीं पाते
और असमय ही खो देते हैं
साहस ऊँची उड़ानों का
बिना पंख फैलाए ही।

पिंजरे के पक्षी
चारों पहर खौफ़ में जीते हैं
खौफ़ से ही सीखते हैं
हर ज़ुल्म सहन कर लेना
चुपचाप दाना चुगना और
पंख समेट सो जाना।

पिंजरे के पक्षी
सहम जाते हैं
ऊँची उड़ानों का
सपना देखने पर
और अपनी चीख़ से
पिंजरे के ख़िलाफ़ उठने वाली
हर एक आवाज को दबा देते हैं।

पिंजरे के पक्षी
गुलाम मानसिकता के हो जाते हैं
आकाश की हर एक आज़ादी को
हर एक सच्चाई को
जबरन झूठा ठहराते हैं
अपनी जान की कीमत देकर भी।

पिंजरे के पक्षी
बेबस हो जाते हैं
पिंजरे से कभी उड़ना नहीं चाहते
मुट्ठी भर दाने के लिए
खेत-खलिहानों में भटकना नहीं चाहते
मिहनत कर घोंसला बनाना नहीं चाहते
पिंजरे के पक्षी
खो चुके साहस के साथ
खो देना चाहते हैं
अपने बोझिल पंखों को भी।

पिंजरे के पक्षी
अपनी कातर आँखों से देखते हैं
दूर आकाश की ओर
और दम तोड़ देते हैं
अपनी ताकत को जाने बिना ही
आकाश की असीम
ऊंचाइयों को छुए बिना ही
गुमनाम मौत के शिकार हो जाते है।

Monday 20 November 2017

दर्द

बेहिसाब दर्द सहकर भी मुस्कुराते हैं वो
न जाने कैसे अपना ग़म छुपा लेते हैं वो
पूछूँ भी तो कैसे अब उनका हाल-ए-दिल
हर इक बात को हँसकर टाल जाते हैं वो।

Tuesday 31 October 2017

गुमनाम

जो एक गुमनाम बातें थीं ज़ेहन बयां न हो सकीं।
जो बेतकल्लुफ़ था वही जहाँ में सरेआम हो गया।

पतवार

भावों के पतवार में बहते हुए ये मैंने जाना
कि अच्छा होता है कभी पत्थर हो जाना।

Wednesday 27 September 2017

आईना

पता नहीं
लोगों की जिंदगी की
क्या कहानी होती है?
मुझे तो अपनी अस्मत
हर रात लुटानी होती है।

कभी जाना ही नहीं मैंने
मोहब्बत और दिल का रिश्ता
मुझे तो उदासियों के साथ ही
जिंदगी बितानी होती है।

बेवजह थोड़े से जख़्म से
कराहते हैं लोग
मेरे शरीर पर तो
हर शख्स की निशानी होती है।

लोग भी उलझ जाते हैं
मोहब्बत की बातों में
मोहब्बत में भला क्या अब
कोई मीरा कृष्ण की दीवानी होती है।

जिंदगी से मर चुके
लोगों की कब्रगाह हूँ मैं
और तुम पूछते हो
मेरी कोई जवानी होती है।

मैं जानती हूँ
पेट की आग और औरत की हकीकत
तुम सोचते हो
हर औरत की अलग कहानी होती है।

गुमनाम अंधेरे में
इस कदर कैद हूँ मैं
कि मुझे हर रात अपनी
मय्यत सजानी होती है।

मत पूछो
मेरे दर्दे-दिल का हाल तुम
तुम्हारी खामोशी की वजह से ही
एक औरत की सरेआम नीलामी होती है।

कैसे कहूँ कि
तुम समझ लोगे मेरे जज्बात
मुझे अपनी आँखों में
हर शख्स की पहचान छुपानी होती है।

मत छेड़ो मेरे जख्मों को
अब रहने भी दो मुझे तन्हा
हमदर्दी दिखाने वालों पर भी
मुझे अब हैरानी होती है।।

Thursday 7 September 2017

जख़्म

थाम कर जो हाँथ चले तो हम आबाद हो गए
जब छूटा साथ तुम्हारा तो हम बर्बाद हो गए।

जिंदगी की गुमराह राहों में भटकता रहा तन्हा
जब रोशनी खो दी हमने तब उजाले हो गए।

बहुत कुछ खोकर हासिल की है यह जमीन
जब तक आशियाना बना तुम पराए हो गए।

कहते हो तुम कि धूप कहाँ है मेरे जीवन में
मंजिल पाने की जिद में पाँव में छाले हो गए।

वक्त ही नहीं बचा कि तुम्हें कुछ वक्त दे सकूँ
थोड़ा वक्त था भी तो दरम्याँ फासले हो गए।

कहाँ मिलना लिखा है तुमसे फुर्सत में बैठकर
अर्से बाद जो मिले भी तो फिर से विदा हो गए।

अजीब जिंदगी है जो खुल कर जीने नहीं देती
जब से चलना सीखा है तब से बेसहारा हो गए।

दुःख का ओर-छोर नहीं दिखता अब जीवन में
बहुत कोशिश कर ली फिर भी तन्हा हो गए।

चलो जिंदगी का यह सफ़र भी तुम्हें मुबारक हो
मेरे तो न हो सके कभी सुना है गैरों के हो गए।

जिंदगी जीने के लिए न जाने कितने वसूल हैं
वक्त के हर मोड़ पर जख़्म और गहरे हो गए।

Tuesday 22 August 2017

रिश्ता

बहुत गम है उसे वह हर एक गम को सह लेता है।
झुककर ही सही वह हर एक रिश्ता निभा लेता है।

लगता है खुदा के घर पर भी मय्यत सी मायूसी है
खुशनुमा हमदर्द लोगों को वो हमसे छीन लेता है|

रोने की जरूरत नहीं रही अब मुलाजिम के सामने
लाचार लोगों का हक वह हँस कर ही हड़प लेता है।

कौन परवाह करता है अब साथ जीने एवं मरने की
जरा सी बात पर ही अब रिश्ता नया दर ढूंढ़ लेता है।

किसको फुर्सत है अब जो मिले, बैठे और बातें करे
दूर से खैरियत पूछकर ही वह फर्ज निभा लेता है।

भागती जिंदगी में इतना दर्द लेकर घूम रहे हैं लोग
कि दूसरे का दर्द देख वह अपना दिल थाम लेता है।

जिसके भरोसे चला था वह अपनी जिंदगी बदलने
बदलते वक्त में वही मुसाफ़िर रास्ता बदल लेता है।

इत्तेफाक से हर रोज ही मिलना होता है उससे पर
वह हर रोज मुस्कुरा कर दिल की बात छुपा लेता है।

सदियों इंतजार का जज्बा लिए बैठे रहे जिसके लिए
दूर देश में वही अपनों को छोड़ सुकून से रह लेता है।

हमेशा जिंदगी सिखाती ही रही नए-नए पाठ फिर भी
वह नए पाठ भूलकर पुरानी गलतियां दोहरा लेता है।

कब तक बेबस होकर यूँ ही तमाशबीन बने रहेंगे लोग
अब तो आए दिन खौफ भी सिर पर मंडरा लेता है।

बहुत धूप-छाँव है जीवन में मगर कोई करे भी तो क्या
हालात से हारकर भी कोई मौत को गले लगा लेता है।

चलो कोशिश करें फिर जिंदगी को नए सिरे से जीने की
समंदर भी तो मटमैले पानी को अपने में मिला लेता है।

Wednesday 9 August 2017

अकेलापन

भीड़ भरे
शहर में
अकेली हूँ मैं
चीखती हूँ
भयावह सन्नाटे में
और लौट आती है
मेरी आवाज
तुम तक नहीं पहुँचती।

तुम व्यस्त हो
या फिर भूल गए
मुझे
तुम्हें नहीं है मेरी
सुध
या फिर
जरूरत नहीं रही
अब मैं।

कैसे कहूँ कि
जिंदगी के
भयावह अंधेरे का
उजाला हो तुम
मेरी जिंदगी का
एकमात्र
सहारा हो तुम
समय की धारा में
बची हूँ अब
ठूंठ मात्र
चिता के ढेर पर
राख होने से पहले
तुमसे मिलने को
आतुर हूँ मैं।

अंतरतम में
ढूंढ़ती हूँ
प्रकाश
और
अंधेरे में
डूब जाती हूँ
हर बार जुड़ती हूँ
खुद से
और
टूट जाती हूँ
तुम बिन
जीने की
कोशिश में
हर बार
बिखर जाती हूँ।

अबकी आना
तो ले आना
ढ़ेर सारा वक्त
वक्त मेरी
हर अनकही
बातों के लिए
हर उस
त्यौहार के लिए
जो बीत गया है
तुम बिन
अबकी आना तो
आँसू छोड़ आना
पत्थर हो गई हूँ
मैं
मुझे देख
मत रोना
अबकी आना
तो फिर
हमेशा के लिए
चले जाना
विदा कर जाना
मुझे किसी
घाट पर
मेरी मुट्ठी भर
राख पर
आखिरी बार
'माँ' लिख देना
अमर हो जाऊँ
तुम्हारे शब्दों से
और बना रहे
तुम्हारा स्पर्श भी
इतनी सी
ख्वाहिश है कि
जाने से पहले
मेरी स्मृतियों को भी
कहीं दफ़न कर जाना
अबकी बार आना
तो फिर
हमेशा के लिए
चले जाना
मेरे बेटे।
(बेटे के इंतजार में कंकाल हो चुकी माँ को समर्पित)

चुनौती

जब तक जिंदगी में प्यार है।
हर चुनौती सहर्ष स्वीकार है|

हार जाती है इंसानियत यहाँ
कत्लेआम भी सरेबाज़ार है।

फैल रही है नफ़रत की खेती
यहाँ मानवता भी शर्मशार है।

कौन पूछे हाले-दिल किसी से
हर शख्स खुद ही गुनहगार है।

हिम्मत हार चुका जो दिल से
उसे एक जीत का इंतजार है।

जिंदगी का क्या भरोसा यहाँ
साँसों पर नहीं अख्तियार है।

अगर न जीत पाए खुद को तो
जग जीत कर भी बड़ी हार है।

आसमाँ के भरोसे मत बैठ यहाँ
तेरे कदमों तले ही तेरा संसार है।

Monday 7 August 2017

चोट

माँ दर्द से कराह उठती है
जब बच्चों को लगती है
चोट
पिता आँसुओं को
चुपचाप पी जाते हैं।

चोट से
सिहर उठता है जब
बचपन
तब लिपट जाता है
माँ के कलेजे से
पिता के कंधे से
और
माँ की थपकियों से
पिता के फूँकने से
काफ़ूर हो जाता है
दर्द।

माँ की नजरें
जब कमजोर
होने लगती हैं
पिता
चलते-चलते
गिरने लगते हैं
जूझने लगते हैं
चोट से
तब बच्चे
पक्षियों की तरह
घोंसला छोड़
दूर कहीं बना लेते हैं
अपना आशियाना
और माता-पिता
रह जाते हैं
घर में अकेले
किसी पुराने सामान की तरह।

माता-पिता
समझते हैं
अजनबी शहर की
परेशानियां
और छुपा लेते हैं
बच्चों से
हर एक बातें
जो चोट पहुंचाती हैं
दिल को।

माता-पिता
अपने बच्चों के
वक्त के
मोहताज हो जाते हैं
और
बच्चे
अपनी जिंदगी की
परेशानियों में कैद।

माता-पिता
नहीं छोड़ पाते
अपने ख्यालात
पूजा-पाठ
रहन-सहन
खानपान के तौर-तरीके
और
बच्चे
शहर की
छोटी कोठरियों में
नहीं दे पाते
माता-पिता को
पाँव पसारने की
थोड़ी सी जगह।

इस तरह
अनगिनत चोटों से
असहनीय हो जाती है
माता-पिता की जिंदगी
और
जटायु की तरह
बेबस भी।

Thursday 3 August 2017

ज़मीर

अत्याचार
आतंकवाद
बेईमानी
बलात्कार
शोषण
की खबरों के बीच
खोजता हूँ
ज़मीर की खबरें
पर वह नहीं मिलतीं।

ज़मीर मर सा गया है
यंत्रवत होते संबंधों के बीच।

नैतिकता को भूल चुके
शिक्षा संस्थानों
व्यवसायिक प्रतिष्ठानों
चिकित्सा जगत
राजनीतिक परिदृश्य
में बमुश्किल ही बचा है
ज़मीर।

मंदिर-मस्जिद में
फल-फूल रहे धंधे में
ज़मीर ढूंढ़ना
मुनासिब नहीं।

न्याय मंदिरों में भी
धन-दौलत से
खरीदा जाने लगा है
ज़मीर।

नन्हीं चिड़िया भी
कातर आँखों से
ढूंढ़ती है हमारी आँखों में
ज़मीर
और उड़ जाती है।

किसान निर्वस्त्र हो जाते हैं
आत्महत्या कर लेते हैं
पर ज़मीर नहीं जगता
मोम की लौ
बुझने से पहले ही
होने लगते हैं बलात्कार
इंसानियत
तार-तार होती रहती है
और पथरा जाती हैं आँखें
राजपथ की भीड़
गुम हो जाती है
अनसुलझे सवाल छोड़कर
खाली हाँथ लौट जाते हैं
किसान,जवान,अवाम सभी
पर ज़मीर नहीं जगता।

ज़मीर बचा है अब
बच्चों में
बच्चे अब भी
नन्हीं उंगलियों से
आँसू पोंछ देते हैं
अजनबियों का
मुस्कान ला देते हैं
मायूस चेहरे पर भी
अपने हिस्से की
रोटी दे देते हैं
पशुओं को भी
चिड़ियों को
पिंजड़े से उड़ा देते हैं
फूलों से करते हैं
अनायास प्रेम
बेजान खिलौनों के लिए
बहाते हैं आँसू
हँस कर भुला देते हैं
हर गम।

बच्चों में ही बची है
उम्मीद की लौ
और उस उम्मीद से
जिंदा है ज़मीर थोड़ा सा
मुर्दा दिलों में भी।

Tuesday 1 August 2017

हम चुप हैं

सड़क पर भटकता
न्याय
झंडे में तब्दील हो
अलग-अलग मोड़ पर खड़ा है|

उसे थामने वाले
हाँथ
बंधे हैं अलग-अलग सवालों से।

आम आदमी के
सरोकार
अब तय करते हैं संख्या बल|

मुद्दे
अपनी पहचान खो बैठे हैं
भूख और भ्रष्टाचार के प्रश्न
मजाक बन गए हैं
तंत्र में|

रहनुमा चाहते हैं
न्याय का अपना
पैमाना
ताकि सिर झुकाए खड़ी रहे
जनता
तीमारदारी में पूर्ववत
सब कुछ सहन करते हुए|

हासिये पर डाल दिए जाते हैं
आम आदमी के चुभते हुए सवाल
क्योंकि हम चुप हैं
हर एक अन्याय सह कर भी|

Thursday 27 July 2017

लोग

जरा सी चिंगारी को आग बना देते हैं लोग
आबाद बस्तियों को राख बना देते हैं लोग।

कौन चाहता है कायम रहे मोहब्बत जहाँ में
अमन की बात पर भी खून बहा देते हैं लोग।

मासूमियत खो गई है अब बच्चों के चेहरे से
मासूम हाँथ को भी कुदाल थमा देते हैं लोग।

अंधेरे रास्ते पर चलने के आदी हो गए हैं पाँव
बेवजह उजाले का ख़्वाब दिखा देते हैं लोग।

प्रेम की उम्मीद तक नहीं है आँखों में अब तो
और जमाने के सामने गले लगा लेते हैं लोग।

कुछ ऐसा दौर चला है गलतफहमियों का अब
कि नफ़रतों के साथ जिंदगी बिता देते हैं लोग।

चलो दिल टूटा अब अपने गम को कहीं छुपा लें
जख़्मी दिल से खेलकर  बहुत दर्द देते हैं लोग।

                               

Tuesday 11 July 2017

मनुष्यत्व

ऐसे समय में
जी रहे हैं
हम सभी
जहां सभी
अच्छी चीजों को
वक्त से पहले
विदा किया जाना है।

पक्षियों को तोड़कर
घोंसला
आसमान में
विलीन हो जाना है।

संबंधों के
पेड़ को
उखड़ जाना है
वक्त की आंधी में।

सूर्य को अस्त
हो जाना है
अंधेरे से डरकर।

रास्तों को
खो जाना है
मंजिल से पहले ही।

गिध्दों को
लाश की राजनीति
करते देखना है
या खुद गिद्द हो जाना है।

मासूमों के हाँथ में
किताब की जगह
थमा दिया जाना है
बंदूक।

गुनहगार की तरह
जीना है
स्त्री को
बेवजह।

भुला दिया जाना है
इतिहास को
गौरव को
आत्म उत्थान की
हर गाथा को।

खो देना है
पीढ़ियों को
बूढ़ी आँखों में
अपनों के
इंतजार के
हर सपने को
अमूल्य धरोहर को।

विदा हो जाना है
संस्कारों को
प्रेम को
परिहास को
क्षमा शक्ति की
संस्कृति को
संवेदना को
कविता को
और
कवि को भी।

भावना से
वस्तु बनते
कठोर युग में
जगह ही नहीं
बची है अब
मनुष्यत्व की।
                    

Monday 10 July 2017

आग

भीड़ तंत्र में
गुम हो रहे
मुद्दों को
मुक्कमल आवाज देने के लिए
अपने अंदर
आग बचाए रखना जरूरी है।

इस भयावह समय में
सच के पक्ष में
बेबाक होकर
अपनी बात कहने के लिए
अपने अंदर
आग बचाए रखना जरूरी है।

लोलुप दुनिया में
अपने ज़मीर को
जिंदा रखने के लिए
अपने अंदर
आग बचाए रखना जरूरी है।

अन्याय के समर में
मर रहे मानवीय मूल्यों
को जीवित रखने के लिए
अपने अंदर
आग बचाए रखना जरूरी है।

बेतहाशा भागती जिंदगी में
बिखर रहे संबंधों को
संजोने के लिए
अपने अंदर
आग बचाए रखना जरूरी है।

नफ़रतों के बीच
प्रेम की उम्मीद बचाए
रखने के लिए
अपने अंदर
आग बचाए रखना जरूरी है।

धारा के विपरीत चलते हुए
अकेले पड़ जाने पर
खुद का साथ देने के लिए
अपने अंदर
आग बचाए रखना जरूरी है।

इससे भी कहीं ज्यादा जरूरी है
अपने अंदर की आग को
कमत्तर न आँकना
और गुलाम रोशनी बन
खुद को
बुझ जाने से
बचा लेना।

Friday 7 July 2017

सत्ताएं

सत्ताएं
बल से
छल से
लोभ से
खरीद लेती हैं
कलम को
हाँथ को
जुबां को
और
बिक जाती है
आत्मा भी
सोच भी
विचार भी।

इस प्रकार
सत्ताएं
इशारे पर
नाचने वाली
कठपुतलियाँ
तैयार करती हैं।

कठपुतलियाँ
दिखाती हैं
सुनहरे सपने
और
दम तोड़ देती है
मानवता।

ग़रीबी
अत्याचार
शोषण के प्रश्न
दबा दिए जाते हैं
जबरन
और
हत्या-आत्महत्या
बलात्कार
के सवाल पर भी
संवेदनहीन हो जाती हैं
सत्ताएं।

समाज के 
आखिरी आदमी
का नारा बुलंद करते-करते
चंद लोगों की जागीर
हो जाती हैं
सत्ताएं।

इस तरह
जन कल्याण की
अपार संभावनाओं के
वाबजूद
बेलगाम ताकत
और
दिशाहीन निर्णयों से
कलंकित
हो जाती हैं
सत्ताएं।
       

Thursday 6 July 2017

खुद

जहाँ में इस हद तक खो चुका हूँ मैं खुद को
कि खुद को पाना नामुमकिन सा हो गया है।
                                         

Friday 16 June 2017

प्रेमिकाएं

अक्सर
जिंदगी की जद्दोजहद में
खो जाती हैं प्रेमिकाएं
और दिल के किसी कोने में
जिंदा रह जाता है अटूट प्रेम।
यह प्रेम पीड़ा बन उभरता है
जब कभी उदास होता है मन
कभी काव्य संवेदना बन
रचने लगता है खुद को ही
कभी यह प्रेम
जिंदगी को तराशने लगता है
असीम संभावनाओं के साथ
तो कभी यादों के सफ़र में
दूर तक साथ देने का
अहसास बन जाता है।
सोचता हूँ
दिल में बचे हुए प्रेम को
शायद प्रेमिकाएं भी
शिद्दत से जीती होंगी
कही-अनकही बातों को
अब भी बख़ूबी
समझती होंगी
दिल दुःखने वाली बातों पर
अब भी हँस देती होंगी
माफ़ कर देती होंगी
सबकी गलतियों को
और छुप कर रो लेती होंगी।
जिंदगी के सफ़र में
हर सूखते जज्बातों को
अतीत की स्मृतियों से
अब भी सींचती होंगी
प्रेमिकाएं।
अब भी किसी के
आने की आहट पर
जल्दी से बन-संवर
थकान छुपा लेती होंगी।
अब भी अकेले में
चेहरे की मुस्कान बन
लहलहाता होगा उनके
आँगन का सुर्ख गुलाब।
अब भी इंतजार के पल में
खो देती होंगी खुद को
और दुआ करती होंगी
हरेक काम से पहले
याद दिलाती होंगी
हर भूली बातों का।
जिंदगी के सफ़र में
साथ चले हुए कदम
वक्त के रास्तों से
बेशक अलग हो जाएं
लेकिन प्रेम नहीं मरता
वक्त के बदले स्वरूप में
जिंदा रहता है वो
अपनी कुलबुलाहट के साथ
और जब दिल में
मरने लगता है प्रेम
तो आदमी भी मर जाता है
जीवित रहकर भी।
                    

Sunday 21 May 2017

सवाल

हवाओं के ख़िलाफ़ खड़ा हूँ मैं
आंधियों में जलता चिराग हूँ मैं
रंजिशें मोहब्बत की निभाता हूँ
आँखों में चुभता सवाल हूँ मैं।

बयां

दिल का दर्द जुबां से बयां नहीं होता
सुलगती है आग पर धुआं नहीं होता
कुछ मजबूर दिल ऐसे भी हैं जहाँ में
रोते हैं पर आँखों से बयां नहीं होता।

वसूल

दुश्मनों से प्रेम करने चला हूँ आदतन फिर से
जानता हूँ बेहिसाब दर्द देंगे मेरे अपने वसूल ही।

फ़र्ज

सारी सुविधाएं मुहैया करा दी मैंने 
और दिल से बेदख़ल कर दिया
इस तरह निभाया मैंने अपना फ़र्ज
और रिश्तों का क़त्ल कर दिया।

तजुर्बा

तजुर्बा करने में ही 
ताउम्र गुजार दी मैंने
जो एक कदम चल सकता था 
वो भी तो न चला गया मुझसे।

अपमान

शत्रुओं के लिए दिल में सम्मान रखता हूँ।
इस तरह अपने देश का अपमान करता हूँ।

घर

जो थोड़ा रिश्तों के दरम्याँ झुक गए होते
तो कई घर बेवजह टूटने से बच गए होते

चिंगारी

आदत सी हो गई है अब तो अंधेरे में रहने की
कोई चिंगारी भी जलती है तो घबरा जाता हूँ मैं।

Thursday 13 April 2017

पढ़ता

खुद को जिंदा रखने के लिए भी 
लिखना पड़ता है अब तो
बदलते वक्त में कोई किसी को 
ढंग से पढ़ता कहाँ है?

पाँव

तपती धूप में
अब नहीं जलते
मजदूरों के पाँव
अमीरों की तरह
वे भी अब 
कठोर हो गए हैं।

Sunday 19 March 2017

मदारी

आस्तीन के सांपों से कोई रिश्ता नहीं रहा मगर
वह शहर में मदारी के नाम से मशहूर हो गया ।

शोहरत

जरा सी शोहरत क्या हासिल कर ली उसने
कि शहर की हवाएँ भी उसके ख़िलाफ़ हो गईं।

ताज

लार लपेटे चुपचाप बैठे हैं व्याघ्र साधु बन
सुना है उसे भी नया ताज मिलने वाला है।

आशियाना

जिंदगी का आशियाना भी कुछ अजीब सा है
एक दीवार जोड़ता हूँ तो दूसरा दरक जाता है।