Monday 15 June 2020

सुशांत

जब लौट रहे थे लोग
अपने घर
छोड़ रहे थे शहर
पराएपन की जमीन से उखड़
अपनेपन की तलाश में
मीलों चल रहे थे
तब तुम भी लौट आते
सुशांत।

तुम्हारा लौटना
उन युवाओं का लौटना होता
जो चाह कर भी कभी लौट नहीं पाते
अपने घर
अपने सपनों की दुनिया से
समझौता करते-करते
सफेद चादर से ढंक लेते हैं
अपना चेहरा
पर अपने घर लौटना
मुनासिब नहीं समझते।

चाहे जो कुछ भी कमाए हों तुमने
अपनी जिंदगी खोकर
पर वो चार दोस्त भी तो नहीं कमा सके
जो तुम्हारा हौसला बन
तुम्हारी जिंदगी और मौत के बीच
अडिग हो खड़े रह पाते।

तुम्हारी जिंदगी के इन आखिरी पलों को
दुनिया के लिए भूल जाना
कोई मुश्किल नहीं
पर जो ज़ख्म तुमने
अपनों को दिया है
वो ज़ख्म उन्हें रुलाता ही रहेगा
ताउम्र।

अपने घर से
अपनों को ख़ुशी देने की ख्वाहिश के साथ
जब निकले होगे तुम
तब कहाँ सोचा होगा किसी ने
कि तुम राख बनकर लौटोगे।

सुशांत
यह लौटने का दौर है
काश तुमसे सीखकर
लौट आएं
वो सभी सुशांत
जिनका महानगरों में होना
कोई मायने नहीं रखता
मायने रखता है
अपनी माँ के आंचल में
बैठकर दो रोटी खाना
और उनका सहारा बनना।