Saturday, 13 October 2018

आत्महंता

दिल में एक आग थी
जो अन्याय के ख़िलाफ़
मशाल बन जगाती थी मुझे
रात-रात भर जागता था
दुनिया को बदलने के सपने के साथ।

अपनी फटेहाली में मैं पाता था
विचारों की अमीरी
अचंभित हो सुनता था
जल-जंगल-जमीन की
अन्यायपूर्ण कहानियां
सोचता था कि विकास के वहशीपन में
कहीं खत्म न हो जाए यह दुनिया
अपराध में आकंठ डूबे हाँथों से
कहीं बेमौत न मारी जाए मानवता
ग़रीब अनुत्तरित न रह जाएं
फिर अपने दुर्भाग्य की तरह।

विचारधाराओं की लड़ाई में
हारता हुआ देखता था ग़रीबी को तो
खौलता हुआ पाता था अपने लहू को
देखता रहता था ग़रीबी के नाम पर
मसीहा बने चेहरे को बिकते हुए
और एक नई सुबह की तलाश में
अंधेरे में दर-दर भटकता रहता था।

अब जबकि उस मुकाम पर हूँ मैं
कि मेरी ही मुट्ठी में बंद है उजाला
मैं ख़ामोशी से देखता हूँ अंधेरे को
अपनी चौखट पर दम तोड़ते हुए
सौदा करता हूँ सच का झूठ के हाँथों
और सच कहूँ तो अन्याय की बुनियाद पर ही
गढ़ रहा हूँ मैं अपने सपनों की इमारत
अतीत अब मेरे लिए उस सीढ़ी की तरह है
जो मंजिल पर पहुंचाकर निरर्थक हो गई है
अन्याय के ख़िलाफ़ आग उगलने वाली
मेरी आवाज़
अब जी-हुजूरी की ग़ुलाम हो गई है।

अपने तमाम उसूलों से समझौता कर
हासिल कर लिया है मैंने चमकता चेहरा
जबकि जानता हूँ मैं कि
आत्महंता हूँ मैं अपनी ही ज़मीर का।

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