Tuesday, 29 September 2015

पूछो

तुम पूछो न पूछो दिल की बात
मैं पूछता हूँ कि पूछते क्यों हो?

Friday, 25 September 2015

जीवन संघर्ष

दिल को इक
संबल चाहिए
जीने के लिए|

इक राह चाहिए
मंजिल तक
पहुँचने के लिए|

इक
छत चाहिए
बसर करने के लिए|

जिंदगी में
'चाहने' और 'होने'
का जो फर्क है

वही जीवन संघर्ष है|

Sunday, 20 September 2015

आत्म चेतना

ठहर सा गया हूँ मैं
या कि ठहर गई है
वो आत्म चेतना
जो आँखों में आंसू
दिल के दर्द को
देख सो नहीं पाती थी|

कहीं सचमुच
अँधेरे में तो नहीं
खो गया हूँ मैं
जहाँ जिंदगी
उजाले की
मोहताज भी नहीं रही|

वो आवाजें
जो गूंजती थीं
आसमानों तक
वक्त के साथ
खो गई हैं मुझमें|

सारी रात
टकटकी लगाकर
अँधेरी रात से
नजरें मिलाने वाली
आँखें
आखिर क्यों
भूल गईं हैं
उन सपनों को
जिसके बिना
जीवन का कोई मकसद
नहीं था|

मजबूरियां
अब नहीं हैं
और नहीं है
वो आग
जिसने जिंदा रखा था मुझे |

अब जो है
वो ठहरा हुआ जल है
जो खूबसूरत तो है
पर बेमानी है
धोखा है उन उसूलों का
जिसे हासिल किया था
मैंने अपना सबकुछ खोकर|

Friday, 18 September 2015

मानवता

अजीब सा शख्स रहता है मुझमें
कि जितना मेरे शब्दों का
गला घोंटते हैं बेरहम
उतना ही मेरे शब्द
फौलादी बनकर
फिर-फिर छा जाते हैं अंतर्मन पर|

दमन के हर कुचक्र से
ऊपर उठता जाता हूँ मैं
क्योंकि मैं जानता हूँ कि
बौनापन होना
एक बरगद की मौत हो जाना है|

जुल्म से हारती नहीं है
जिजीविषा
मेरे दर्द कुरेदते रहते हैं मुझे
शब्दों का धार बनकर|

छुपा कर रखता हूँ
थोड़ी सी आशा
दिल में
ताकि पत्थर दिल होने से
बचा सकूँ खुद को
इस अमानवीय दुनिया में|

बेशक जकड़ दिए गए हों पांव
वक्त के जज्बातों से
मैं सैलाब को अपने
समंदर बनाता जाता हूँ|

चाहता हूँ एक समंदर
तुममें भी हो गरजता हुआ
देता हुआ माकूल जवाब
हर इक जुर्म को
ताकि बची रहे मासूमियत

बची रहे मानवता |

Saturday, 12 September 2015

अंतहीन प्यास

शब्द खो चुके हैं अपना अर्थ
या कि अर्थहीन हो गई हैं संवेदनाएं


दर्द भरे स्वर खो चुके हैं अपना कंठ
या कि दफ्न कर दिया गया है ईमान को     


अतिशय शोर से थरथराने लगी है धरती
या कि भय ने प्रेम को विषाक्त कर दिया है


जंग जीतने की हताशा फैली है हर कहीं  
या कि विवश हो गई है मनुष्यता?


विकास के अध नंगेपन में खोई है दुनिया
या कि सिसक रही है सभ्यता

नफ़रत से धधकती धरती में बची है
सिर्फ अंतहीन प्यास
पत्थर हो जाने की
अमिट हो जाने की| 

Tuesday, 8 September 2015

आँखें

आँखें जब देखती हैं भूख
तब चुप रहती हैं|

आँखें जब देखती हैं बेबसी
तब लाचार बन जाती हैं|

आँखें जब देखती हैं अन्याय
तब सब सह जाती हैं|

आँखें जब देखती हैं दर्द
तब कठोर हो जाती हैं|

आँखें दुनिया हो गई हैं
खोखली,संवेदनहीन
स्मृतिहीन |

आँखों के सपने
बूढ़े हो गए हैं
इस इंतजार में कि
घोर कालिमा से घिरी रात का
उजास कहीं हो|