Sunday 20 September 2015

आत्म चेतना

ठहर सा गया हूँ मैं
या कि ठहर गई है
वो आत्म चेतना
जो आँखों में आंसू
दिल के दर्द को
देख सो नहीं पाती थी|

कहीं सचमुच
अँधेरे में तो नहीं
खो गया हूँ मैं
जहाँ जिंदगी
उजाले की
मोहताज भी नहीं रही|

वो आवाजें
जो गूंजती थीं
आसमानों तक
वक्त के साथ
खो गई हैं मुझमें|

सारी रात
टकटकी लगाकर
अँधेरी रात से
नजरें मिलाने वाली
आँखें
आखिर क्यों
भूल गईं हैं
उन सपनों को
जिसके बिना
जीवन का कोई मकसद
नहीं था|

मजबूरियां
अब नहीं हैं
और नहीं है
वो आग
जिसने जिंदा रखा था मुझे |

अब जो है
वो ठहरा हुआ जल है
जो खूबसूरत तो है
पर बेमानी है
धोखा है उन उसूलों का
जिसे हासिल किया था
मैंने अपना सबकुछ खोकर|

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