Friday 18 September 2015

मानवता

अजीब सा शख्स रहता है मुझमें
कि जितना मेरे शब्दों का
गला घोंटते हैं बेरहम
उतना ही मेरे शब्द
फौलादी बनकर
फिर-फिर छा जाते हैं अंतर्मन पर|

दमन के हर कुचक्र से
ऊपर उठता जाता हूँ मैं
क्योंकि मैं जानता हूँ कि
बौनापन होना
एक बरगद की मौत हो जाना है|

जुल्म से हारती नहीं है
जिजीविषा
मेरे दर्द कुरेदते रहते हैं मुझे
शब्दों का धार बनकर|

छुपा कर रखता हूँ
थोड़ी सी आशा
दिल में
ताकि पत्थर दिल होने से
बचा सकूँ खुद को
इस अमानवीय दुनिया में|

बेशक जकड़ दिए गए हों पांव
वक्त के जज्बातों से
मैं सैलाब को अपने
समंदर बनाता जाता हूँ|

चाहता हूँ एक समंदर
तुममें भी हो गरजता हुआ
देता हुआ माकूल जवाब
हर इक जुर्म को
ताकि बची रहे मासूमियत

बची रहे मानवता |

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