Saturday, 12 September 2015

अंतहीन प्यास

शब्द खो चुके हैं अपना अर्थ
या कि अर्थहीन हो गई हैं संवेदनाएं


दर्द भरे स्वर खो चुके हैं अपना कंठ
या कि दफ्न कर दिया गया है ईमान को     


अतिशय शोर से थरथराने लगी है धरती
या कि भय ने प्रेम को विषाक्त कर दिया है


जंग जीतने की हताशा फैली है हर कहीं  
या कि विवश हो गई है मनुष्यता?


विकास के अध नंगेपन में खोई है दुनिया
या कि सिसक रही है सभ्यता

नफ़रत से धधकती धरती में बची है
सिर्फ अंतहीन प्यास
पत्थर हो जाने की
अमिट हो जाने की| 

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