सत्ताएं
बल से
छल से
लोभ से
खरीद लेती हैं
कलम को
हाँथ को
जुबां को
और
बिक जाती है
आत्मा भी
सोच भी
विचार भी।
इस प्रकार
सत्ताएं
इशारे पर
नाचने वाली
कठपुतलियाँ
तैयार करती हैं।
कठपुतलियाँ
दिखाती हैं
सुनहरे सपने
और
दम तोड़ देती है
मानवता।
ग़रीबी
अत्याचार
शोषण के प्रश्न
दबा दिए जाते हैं
जबरन
और
हत्या-आत्महत्या
बलात्कार
के सवाल पर भी
संवेदनहीन हो जाती हैं
सत्ताएं।
समाज के
आखिरी आदमी
का नारा बुलंद करते-करते
चंद लोगों की जागीर
हो जाती हैं
सत्ताएं।
इस तरह
जन कल्याण की
अपार संभावनाओं के
वाबजूद
बेलगाम ताकत
और
दिशाहीन निर्णयों से
कलंकित
हो जाती हैं
सत्ताएं।
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