Thursday 3 August 2017

ज़मीर

अत्याचार
आतंकवाद
बेईमानी
बलात्कार
शोषण
की खबरों के बीच
खोजता हूँ
ज़मीर की खबरें
पर वह नहीं मिलतीं।

ज़मीर मर सा गया है
यंत्रवत होते संबंधों के बीच।

नैतिकता को भूल चुके
शिक्षा संस्थानों
व्यवसायिक प्रतिष्ठानों
चिकित्सा जगत
राजनीतिक परिदृश्य
में बमुश्किल ही बचा है
ज़मीर।

मंदिर-मस्जिद में
फल-फूल रहे धंधे में
ज़मीर ढूंढ़ना
मुनासिब नहीं।

न्याय मंदिरों में भी
धन-दौलत से
खरीदा जाने लगा है
ज़मीर।

नन्हीं चिड़िया भी
कातर आँखों से
ढूंढ़ती है हमारी आँखों में
ज़मीर
और उड़ जाती है।

किसान निर्वस्त्र हो जाते हैं
आत्महत्या कर लेते हैं
पर ज़मीर नहीं जगता
मोम की लौ
बुझने से पहले ही
होने लगते हैं बलात्कार
इंसानियत
तार-तार होती रहती है
और पथरा जाती हैं आँखें
राजपथ की भीड़
गुम हो जाती है
अनसुलझे सवाल छोड़कर
खाली हाँथ लौट जाते हैं
किसान,जवान,अवाम सभी
पर ज़मीर नहीं जगता।

ज़मीर बचा है अब
बच्चों में
बच्चे अब भी
नन्हीं उंगलियों से
आँसू पोंछ देते हैं
अजनबियों का
मुस्कान ला देते हैं
मायूस चेहरे पर भी
अपने हिस्से की
रोटी दे देते हैं
पशुओं को भी
चिड़ियों को
पिंजड़े से उड़ा देते हैं
फूलों से करते हैं
अनायास प्रेम
बेजान खिलौनों के लिए
बहाते हैं आँसू
हँस कर भुला देते हैं
हर गम।

बच्चों में ही बची है
उम्मीद की लौ
और उस उम्मीद से
जिंदा है ज़मीर थोड़ा सा
मुर्दा दिलों में भी।

No comments:

Post a Comment