Wednesday 9 August 2017

अकेलापन

भीड़ भरे
शहर में
अकेली हूँ मैं
चीखती हूँ
भयावह सन्नाटे में
और लौट आती है
मेरी आवाज
तुम तक नहीं पहुँचती।

तुम व्यस्त हो
या फिर भूल गए
मुझे
तुम्हें नहीं है मेरी
सुध
या फिर
जरूरत नहीं रही
अब मैं।

कैसे कहूँ कि
जिंदगी के
भयावह अंधेरे का
उजाला हो तुम
मेरी जिंदगी का
एकमात्र
सहारा हो तुम
समय की धारा में
बची हूँ अब
ठूंठ मात्र
चिता के ढेर पर
राख होने से पहले
तुमसे मिलने को
आतुर हूँ मैं।

अंतरतम में
ढूंढ़ती हूँ
प्रकाश
और
अंधेरे में
डूब जाती हूँ
हर बार जुड़ती हूँ
खुद से
और
टूट जाती हूँ
तुम बिन
जीने की
कोशिश में
हर बार
बिखर जाती हूँ।

अबकी आना
तो ले आना
ढ़ेर सारा वक्त
वक्त मेरी
हर अनकही
बातों के लिए
हर उस
त्यौहार के लिए
जो बीत गया है
तुम बिन
अबकी आना तो
आँसू छोड़ आना
पत्थर हो गई हूँ
मैं
मुझे देख
मत रोना
अबकी आना
तो फिर
हमेशा के लिए
चले जाना
विदा कर जाना
मुझे किसी
घाट पर
मेरी मुट्ठी भर
राख पर
आखिरी बार
'माँ' लिख देना
अमर हो जाऊँ
तुम्हारे शब्दों से
और बना रहे
तुम्हारा स्पर्श भी
इतनी सी
ख्वाहिश है कि
जाने से पहले
मेरी स्मृतियों को भी
कहीं दफ़न कर जाना
अबकी बार आना
तो फिर
हमेशा के लिए
चले जाना
मेरे बेटे।
(बेटे के इंतजार में कंकाल हो चुकी माँ को समर्पित)

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