Thursday, 26 April 2018

शहर


आँखों में दफ़न होते
ख्वाहिशों के साथ
निकलता हूँ हर दिन
चश्मा पोंछ देखता हूँ
शहर के धुंधलापन को
शहर के कतारों में उम्मीदों को खोकर
थके पाँव लौट आता हूँ |

गाँव लौटने के वादे के साथ कभी 
थामा था मैंने इस शहर का दामन
इस शहर ने छीन लिया है मेरा वक्त भी   
इंतजार करते माँ-पिता के साथ ही
खो दिया है मैंने अपना गाँव-घर भी |

शहर की इस बंद गली में 
हवाएं मेरे कमरे की खिड़कियाँ नहीं खोलतीं
बंद दरवाजों ने कभी
दूसरों के लिए खुलने की ज़हमत ही नहीं की 
चाय की प्यालियों ने कभी
आपस में बात ही नहीं की
हँसी-ठहाकों का कभी 
मेरे इन बंद दीवारों से वास्ता ही नहीं पड़ा |

इस शहर ने मेरी सोचने-समझने की 
भाषा में भी कर दिया है फर्क
खुद से भी कभी मुक़म्मल बात नहीं की है मैंने
थोड़ी सी दूरी बना कर रखी है मैंने खुद से भी
खुद को ही जिंदा रखने के लिए|  

एक दिन ऐसा होगा कि 
मेरे कमरे के बंद दरवाजे तोड़ दिए जाएंगे 
शोर मचाने लगेंगी खिड़कियाँ 
चुप गली बोलने लगेगी
फिर भी मैं उठूंगा नहीं
उठाएंगे मुझे कुछ अनमने कंधे 
जल उठेंगी मेरी ख़्वाहिशें चिता पर
पर आग की लपटों के साथ मैं उठूंगा जरुर
राख,हवा,पानी बनकर ही सही  
किसी न किसी रूप में
अपने गांव-घर तक पहुँचूँगा जरुर।

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