औपचारिक होते समय में
औपचारिक हो गए हैं
शब्द भी
शब्द
खो गए हैं
अतिशय शोर में
शब्दों ने खो दिया है
अपना विश्वास भी
शब्द
अपने अर्थ के ही
मोहताज़ हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्द
कठोर हो गए हैं
बिकाऊ हो गए हैं
लुभावने नारे में
तब्दील हो गए हैं
चौक-चौराहों पर
इश्तेहार बन
बाज़ार की वस्तु बन गए हैं
शब्दों ने
चीख़ को भी
सीख लिया है
सलीके से बोलना
शब्द
अमीरों के तीमारदार हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्द
निरर्थक पड़े हैं
किताबों में
कविताओं में
कहानियों में
शब्द
दम तोड़ रहे हैं
इतिहास के
बंद पन्नों में
सार्थक अर्थ की तलाश में।
औपचारिक होते समय में
शब्दों ने
शब्दों से
रिश्ता रखना छोड़ दिया है
शब्द सिमटने लगे हैं
भाषाओं में
गीत-संगीत में
लोक संस्कृति में
शब्द अब
कामचलाऊ हो गए हैं
चंद अल्फ़ाज़ों में कैद हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्दों ने
धारण कर लिया है
अपना-अपना
बहुमुखी अर्थ
शब्दों से आहत होने लगी हैं
भावनाएं
परंपराएं
शब्द
हथियार बन गए हैं
शब्द
राजनीति के शिकार हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्दों के चकाचौंध में
वो शब्द भी सिमट गया है
जिससे पनपा है
प्रेम
जिससे पनपी है
मानवीयता
जिससे पनपी है
संवेदनशीलता।
औपचारिक होते समय में
बिके हुए शब्दों ने
ऐलान कर दिया है
अपनी बादशाहत
और विरोधी शब्दों को
बाहर कर दिया है
ज़बरन
अनौपचारिक ठहराकर।
औपचारिक हो गए हैं
शब्द भी
शब्द
खो गए हैं
अतिशय शोर में
शब्दों ने खो दिया है
अपना विश्वास भी
शब्द
अपने अर्थ के ही
मोहताज़ हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्द
कठोर हो गए हैं
बिकाऊ हो गए हैं
लुभावने नारे में
तब्दील हो गए हैं
चौक-चौराहों पर
इश्तेहार बन
बाज़ार की वस्तु बन गए हैं
शब्दों ने
चीख़ को भी
सीख लिया है
सलीके से बोलना
शब्द
अमीरों के तीमारदार हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्द
निरर्थक पड़े हैं
किताबों में
कविताओं में
कहानियों में
शब्द
दम तोड़ रहे हैं
इतिहास के
बंद पन्नों में
सार्थक अर्थ की तलाश में।
औपचारिक होते समय में
शब्दों ने
शब्दों से
रिश्ता रखना छोड़ दिया है
शब्द सिमटने लगे हैं
भाषाओं में
गीत-संगीत में
लोक संस्कृति में
शब्द अब
कामचलाऊ हो गए हैं
चंद अल्फ़ाज़ों में कैद हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्दों ने
धारण कर लिया है
अपना-अपना
बहुमुखी अर्थ
शब्दों से आहत होने लगी हैं
भावनाएं
परंपराएं
शब्द
हथियार बन गए हैं
शब्द
राजनीति के शिकार हो गए हैं।
औपचारिक होते समय में
शब्दों के चकाचौंध में
वो शब्द भी सिमट गया है
जिससे पनपा है
प्रेम
जिससे पनपी है
मानवीयता
जिससे पनपी है
संवेदनशीलता।
औपचारिक होते समय में
बिके हुए शब्दों ने
ऐलान कर दिया है
अपनी बादशाहत
और विरोधी शब्दों को
बाहर कर दिया है
ज़बरन
अनौपचारिक ठहराकर।
No comments:
Post a Comment