Friday 17 August 2018

बग़ावत

वे भी आवाज उठाने लगे हैं 
जो उपजाते हैं अन्न 
जो भूखे सो जाने को विवश हैं 
जिनके आँगन में जलता है 
चाँद का दीया 
जिनके बच्चे दम तोड़ देते हैं 
झाड़-फूंक होते-होते।

जो डाकिया को ही समझते हैं
सबसे बड़ा बाबू 
जिन्होंने जीवन के सिवा 
पढ़ा ही नहीं है कोई पाठ
जो जानते ही नहीं हैं
भूख से इतर दुनिया
जो बस जानते हैं
पसीने से धरती सींचना 
उम्मीदों की फसल बोना
और दाने-दाने के लिए 
मोहताज हो जाना।

आवाज उठाने वाले
एक दिन भूख के ख़िलाफ़
बग़ावत कर देंगे
फांस देंगे शोषण की गर्दन
भूख की आग में 
राख हो जाएंगी तिजोरियां
एक-एक कर मारे जाएंगे
वे सभी जिन्होंने छीन रखा है
उनसे मनुष्य होने का हक
वे भी जिनकी आत्मा मर गई है
और वे भी जो रहनुमा हो गए हैं
हुकूमत के।

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