Sunday, 13 July 2014

अछूत

सदियों से
रात के स्याह में
गुजरते हुए
उसने
कभी
सोचा ही नहीं कि
दामन
सफ़ेद है
उसे लगा कि
दामन पर
पोत दी गई है
काली रात
और
अँधेरे
में ही चलना है उसे
जब तक मिट नहीं जाता शरीर|

उसे डर लगता है
उजाले से
जिसमें
छुपे होते हैं
खौफ़नाक चेहरे
नकाब पहने हुए
इंसानियत का
जो लुटते हैं
तन –मन-धन
सबकुछ
और
सरेआम
परछाई
छू जाने पर
देते हैं
गालियाँ
और
बरसाते हैं
लात-घूंसा
अधमरा हो जाने तक|

क्योंकि
हम
इंसान नहीं
अब भी
अछूत
कहे जाते हैं
और
तन-मन-धन
लूटने के लिए ही
सभ्य
कहे जाने वाले
हांथों द्वारा   

छुए जाते हैं| 

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