Wednesday 23 July 2014

मेरी हिंदी माँ

तुमने ही तो कहा था
एक दिन
अतिथि आओ हमारे द्वार |

तब तुम कहाँ जानती थी?
कि तुम बुला रही हो
तुम्हें ही मिटा देने वाली
तुम्हें ही तोड़ देने वाली
ताकत को
जो धीरे-धीरे
आँगन में खेलने लगी थी तुम्हारे|

तभी पहचान गईं थीं
कुछ कुशल आँखें
कि हटाना ही होगा
तुम्हारे आँगन में छुपे तूफान को
परंतु, तुम्हारे बेटों को भा गई थी
विदेशी बहू|

और एक दिन
घर से निकाल दी गई थी
तुम चौराहे पर
जहाँ आंदोलन बन गई थी तुम|

तुम्हारे साथ खड़े थे
गाँधी जी
देश की भावनाओं के साथ|

अब गाँधी जी नहीं
उनकी सोच नहीं
उनके सपने नहीं
तो मारे-मारे फिरती हो तुम
गली-चौक-चौराहे पर|

कुछ सनकी बेटे हैं तुम्हारे
जो पूजते हैं तुम्हें
पर अपनाते नहीं|

छोड़ आए हैं वे
तुम्हें राजपथ पर
जहाँ सेंकीं जाती हैं
तुम्हारे नाम पर
राजनीति की रोटियां|

तुम हमारी माँ हो
यह मानता है देश
पर जीता है वह
विदेशी बहू के साथ
शौक से|

तुम पगली हो
इस देश के लिए
या पागल है यह देश
नहीं जानता |

सोचता हूँ
फिर गाँधी जी आएंगे
तुम्हें पहचान दिलाने के लिए
तुम्हें घर लौटाने के लिए
फिर गाँधी जी आएंगे
मेरी हिंदी माँ |  




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