स्त्री
दलित हो जाती है
जब भूल जाती हैं
आँखें
सपना देखना
खुशहाली का
जब स्वीकार कर लेता
है मन
दुःख, दर्द, अपमान
सब कुछ यूँ हीं
जब हांथ की रेखाएं
मिट जाती हैं
भूख को
मिटाते-मिटाते|
जब उपयोग की वस्तु
बन जाती है
स्त्री
तब धरती की तरह रौंद
दी जाती है
परंपराओं द्वारा
और आह तक नहीं करती|
स्त्री
जब अस्तित्वहीन हो
जाती है
तब दलित हो जाती है
गिरा दी जाती है
समाज की नजरों
से
तब तक
जब तक
हमारी नजरें खामोश
बनी रहती हैं
जान कर भी सब कुछ
नहीं देख पातीं
अधूरा सच |
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