Sunday, 13 July 2014

स्त्री

स्त्री
दलित हो जाती है
जब भूल जाती हैं आँखें
सपना देखना
खुशहाली का
जब स्वीकार कर लेता है मन
दुःख, दर्द, अपमान
सब कुछ यूँ हीं
जब हांथ की रेखाएं मिट जाती हैं
भूख को मिटाते-मिटाते|

जब उपयोग की वस्तु बन जाती है
स्त्री
तब धरती की तरह रौंद दी जाती है
परंपराओं द्वारा
और आह तक नहीं करती|

स्त्री
जब अस्तित्वहीन हो जाती है
तब दलित हो जाती है
गिरा दी जाती है
समाज की नजरों से 
तब तक 
जब तक
हमारी नजरें खामोश
बनी रहती हैं
जान कर भी सब कुछ
नहीं देख पातीं 

अधूरा सच | 

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