सूरज
भी
अलग-अलग
आँगन
में बंट जाता है
उसकी तपिश
जलाती है हमें
और
उसके
उजाले के साथ
कई स्याह
चेहरे
घूमते हैं
सफेदपोश
बनकर|
बंट जाता है
हमारे हिस्से का
हवा,पानी
सबकुछ
बंद हो जाते हैं
दरवाजे
मंदिर के
और
तक़दीर
चंद मुट्ठी में|
चौखट पर
फेंक
दी जाती है
जिंदगी
जैसे
रेत
पर फेंक
दी जाती हैं
मछलियाँ
स्वाद की खातिर |
हमें
उजाड़ा
जाता है
सफेदपोश
चेहरे द्वारा
ताकि बनी रहे
सभ्यता
बची रहे
संस्कृति
और
एक खोखला
तमाशबीन समाज|
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