Sunday 13 July 2014

तमाशबीन समाज

सूरज
भी
अलग-अलग
आँगन
में बंट जाता है
उसकी तपिश
जलाती है हमें
और
उसके
उजाले के साथ
कई स्याह
चेहरे
घूमते हैं
सफेदपोश
बनकर|

बंट जाता है
हमारे हिस्से का
हवा,पानी  
सबकुछ
बंद हो जाते हैं
दरवाजे
मंदिर के
और
तक़दीर
चंद मुट्ठी में|

चौखट पर
फेंक
दी जाती है
जिंदगी
जैसे
रेत
पर फेंक
दी जाती हैं    
मछलियाँ  
स्वाद की खातिर |


हमें
उजाड़ा
जाता है  
सफेदपोश
चेहरे द्वारा
ताकि बनी रहे
सभ्यता
बची रहे
संस्कृति
और
एक खोखला

तमाशबीन समाज|  

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