माँ की कोख में
महफूज रहती है
पलती है
अबूझ पहेली की तरह
और जीवन
उसे देता है
गुलामी की
अंतहीन जंजीर|
अपाहिज मानसिकता
स्त्री को
पशु
बना देती है
जो नहीं जानती
शोषण
नहीं जानती
अत्याचार
जानती है
सिर्फ
बिछना रात को
और सुबह
खेत हो जाना|
लहलहाती
फसलों की तरह
काट ली जाती हैं
स्त्रियां
और
उपयोग
के बाद
फेंक दी जाती हैं
जूठे पत्तल की तरह
कूड़ेदान में|
मर्यादा
के नाम पर
अब भी
निर्वासित होतीं हैं
स्त्रियां
घर से
समाज से|
समाज के कोख में
जबरन
गिराई जाती हैं
स्त्रियां
अनचाहे भय से
और
भूख में
खाई जाती हैं
स्त्रियां
चटपटे
व्यंजन की तरह|
सूखते तालाब
की तरह हैं
स्त्रियां
जो याद की जाती हैं
सेमिनारों में
बड़ी-बड़ी बहसों में
और
चाय की प्याली के
साथ
भूला दी जाती हैं
सब अच्छी-अच्छी बातों की तरह|
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